बुधवार, 27 जून 2012

ज़िन्दा होने का प्रमाण!


कई क़िताबें ले आती हूँ, पर उनमे से कई पढ़ नहीं पाती... समय का अभाव, व्यस्तता और पाठ्य पुस्तकों से अवकाश ले कर ही मुड़ा जा सकता है इनकी ओर...!
दो दिन पूर्व लाइब्रेरी से यह (Please look after mother/Kyung-Sook Shin) पुस्तक लायी और आरम्भ किया तो पढ़ भी गयी कुछ घंटों में...; यह एक कोरियन उपन्यास है... कहानी एक माँ के इर्द गिर्द घूमती है, उसका जीवन, उसकी त्याग तपस्या, उसकी अहमियत सब एक दिन उसके खो जाने के बाद रेखंकित होते हैं परिवार के सदस्यों की यादों में..., वह अपने पति और पांच बच्चों के जीवन का अहम हिस्सा रही पर कोई उसे उसके रहते समझ नहीं पाया... एक दिन स्टेशन पर उसका खो जाना और उसे ढूँढने के लिए किये गए असफल उपक्रमों के बीच बढ़ती हुई कहानी सभी परिवारजनों को खालीपन से भर जाती है; अपनी कृतघ्नता का अहसास प्रबलता से महसूस करते हैं सभी. उनकी स्मृतियों से बनती जाती है माँ की तस्वीर, उसके रहते उसके बारे में जो नहीं सोचा समझा वह सब सोचने, समझने, करने को उत्कट हैं सभी पर माँ है कि खो चुकी है...! पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे यह सांकेतिक रूप से हर माँ की कथा है..., अनचीन्हा ही रह जाता है उसका अस्तित्व; वह इस तरह प्रस्तुत रहती है हमारे लिए कि उसके होने की महत्ता हम आजीवन नहीं जान पाते...!
माँ ही क्यूँ, ये तो स्वभावतः हर तत्व, हर रिश्ते के साथ होता है... हम जीवन को भी तो बस काटते चले जाते हैं, जीने के महत्त्व से अनभिज्ञ; जब खोने को होता है सबकुछ तब एहसास होता है कि यूँ ही गँवा दिया जिसे, वह जीवन कितना अनमोल था, कितना सुगढ़ सुन्दर हो सकता था हमारी ज़रा सी पहल से!
खो देने पर ही क्यूँ एहसास हो किसी के महत्त्व का... चाहे वह समय हो, रिश्ते हों या व्यक्ति विशेष हो...? कितना कुछ है जिसके लिए प्रतिपल हमें आभारी होना चाहिए, मात्र वाणी से ही नहीं, अपनी संवेदनशीलता और अपने कर्मों से भी... इस बात का आभास रहेगा तो व्यक्त भी होगा, व्यस्त जीवन की कुछ घड़ियाँ अनायास समर्पित भी होंगी... प्रकृति को, समाज को, परिवार को और यही घड़ियाँ जीवन का असल हासिल होंगी!
समय रहते मूल्य पहचानना सीखें हम, तभी मिल सकेगा हमारे ज़िन्दा होने का प्रमाण!

सोमवार, 4 जून 2012

बहती धारा की तरह!



लिखते ही रचनात्मक सुख मिल जाता है, लिखने का कोई और अन्य उद्देश्य भी हो सकता है, इसका ज्ञान नहीं हमें या शायद कोई अन्य उद्देश्य हो भी नहीं सकता... क्यूंकि लिखना तो एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है... किसी सुन्दर दृश्य को देखने की तरह... हाँ, देखने के बाद विचार प्रस्फुटित होते हैं, मन अच्छा अनुभव करता है; वैसे ही लेखन के बाद शब्द अपना चमत्कार शुरू करते हैं...! बड़े बड़े परिवर्तन की आधारशिलायें भी तो यूँ ही रची गयीं होंगी... शब्दों से क्रांति आई होगी, किसी करुण संवाद ने रुलाया होगा, कोई कोमल अभिव्यक्ति किसी का दर्द सहला गयी होगी...! 
रचे जाने के बाद शब्द अपना उद्देश्य स्वयं ढूंढ लेते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता अलग से...

होना चाहिए सहज, बहती धारा की तरह, शेष सब होता जाता है!
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अपने आप से संवाद करते हुए लिखी थी ये बातें कभी... इसी संवाद का विस्तार बनी यह कविता...! कुछ उत्तर स्वयं को ही देने होते हैं, कुछ प्रश्नचिन्हों के हल ढूँढ़ना हमारे अपने लिए आवश्यक हो जाता है कभी कभी...; ऐसे ही विचार प्रवाह में लेखनी ने स्वयं खोजा जवाब मेरे लिए... और कविता बोली: