tag:blogger.com,1999:blog-1682867447909839342024-02-21T10:06:29.060+01:00नीला अम्बरअनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.comBlogger32125tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-78268135640492115852013-12-31T05:51:00.002+01:002013-12-31T05:51:44.144+01:00विश्वास का रंग...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://www.anusheel.in/" target="_blank">अनुशील</a> पर बहुत लिखा... उदास दिसंबर का शायद ही कोई दिन बीता हो जब जी भर कर रोई नहीं और रोते रोते कुछ लिखा नहीं... सागर किनारे की अनुभूतियाँ लिखते हुए आज नीला अम्बर बेतरह याद आया तो अब हूँ यहाँ पर... अम्बर श्याम पड़ गया है इस मौसम में... कितने ही दिन सूरज की अनुपस्थिति में अम्बर ने अपने बलबूते किसी तरह जैसे सुबह का खांका खींचा हो... कई बार अम्बर सफल हुआ... कई बार नहीं भी!</div>
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मैं यूँ ही शून्य की ओर ताकते हुए सोचती हूँ सुख... तो दुःख वहीँ झांकता हुआ नज़र आता है! कैसी तो स्थिति है किनारे उदास हैं... मझधार भी कुछ खुश नहीं नज़र आता और सागर... सागर तो प्रगल्भ है... <a href="http://www.anusheel.in/2013/12/blog-post_31.html" target="_blank">उसकी अनुभूतियों</a> की किसे थाह है भला...!</div>
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ऐसे में दूर कहीं उगा सूरज जो तनिक लालिमा छिटकता है न पेड़ों की सबसे ऊँची डाली पर... पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पर... वही लालिमा कहती हुई प्रतीत होती है: न उदास हो... जो बीत रहा है वह समय सारी उदासियाँ साथ लेकर बीत जायेगा... और उदासियाँ रह भी गयीं तो उदासियों पर कोई गहरा रंग चढाने नयी सुबह अवश्य आएगी... उस रंग की आस मत छोड़ना कभी... वह रंग है विश्वास का... वह रंग है श्रद्धा का... वही उबारेगा... तुम्हारे डूबते हुए मन को वही तारेगा...!</div>
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ईश्वर के श्रीचरणों में कोटि कोटि प्रणाम अर्पित करते हुए सभी के लिए मंगलकामना...!<br /></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEQm3RLvvLpPiiArTPDhS5RPjFSM2VU6a-cVlgW4RuNMDv1Ye4eLyXCytY6OYdhStOHUI64eDBs2mI_CctfhUFMJmZStD3JstwBptMCrPaKovgYcnJs6nHcF-W7pBeEZYUq9pbedsMOYk/s1600/IMG_3650.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEQm3RLvvLpPiiArTPDhS5RPjFSM2VU6a-cVlgW4RuNMDv1Ye4eLyXCytY6OYdhStOHUI64eDBs2mI_CctfhUFMJmZStD3JstwBptMCrPaKovgYcnJs6nHcF-W7pBeEZYUq9pbedsMOYk/s640/IMG_3650.JPG" width="640" /></a></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyJ3V5MDRxzKJlxuQfg98OVYqnwED1c1f4POs6_GkAQFNXMMRhHMYmmsfW9aZ0fiM8UJnNVP77wUT-sZhcQEhs2sSVdQ-eLkLvratRqiCdLSsBqltweiehRB5ytf1wP2NTN1Ll4CdYIU8/s1600/IMG_3652.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyJ3V5MDRxzKJlxuQfg98OVYqnwED1c1f4POs6_GkAQFNXMMRhHMYmmsfW9aZ0fiM8UJnNVP77wUT-sZhcQEhs2sSVdQ-eLkLvratRqiCdLSsBqltweiehRB5ytf1wP2NTN1Ll4CdYIU8/s640/IMG_3652.JPG" width="640" /></a></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJTOvGaKFWEOwfRqctiwkdtMg82xWmrFTDTCIUAIB8dhRWBGUQAVrw6LPnLaDGbXuZemHcc34rNJEly73es-nMIfPQmpVkyaI2Y9khDieLUfY9hEgA2jWaSzgOKBrFcIcSeVHeYuIVKNI/s1600/IMG_3643.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJTOvGaKFWEOwfRqctiwkdtMg82xWmrFTDTCIUAIB8dhRWBGUQAVrw6LPnLaDGbXuZemHcc34rNJEly73es-nMIfPQmpVkyaI2Y9khDieLUfY9hEgA2jWaSzgOKBrFcIcSeVHeYuIVKNI/s640/IMG_3643.JPG" width="640" /></a></div>
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तस्वीर: इस मौसम में समंदर कैसा है... क्या उतना ही खरा... उतना ही खारा जितने कि आंसू... यही कुछ थाहते हुए लीं थी ये तसवीरें सुबह सुबह...! </div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-88574225290692501292013-11-09T16:59:00.002+01:002013-11-09T18:14:07.333+01:00भींगे मौसम में एक धूप की याद!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2oVUBxnA8XFzLf0hslrHFn8c95vfv4-bwrPjmWpeMDX2vHH5siDChrge9r9oUXKmT9lyWvAsxTf5rzAM32gr73rSljOAtCvx7s6YBc9kT7pT4HIJUCQWtBumGXphu_hH1AF0OD1e7WnE/s1600/DSC_0095.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2oVUBxnA8XFzLf0hslrHFn8c95vfv4-bwrPjmWpeMDX2vHH5siDChrge9r9oUXKmT9lyWvAsxTf5rzAM32gr73rSljOAtCvx7s6YBc9kT7pT4HIJUCQWtBumGXphu_hH1AF0OD1e7WnE/s400/DSC_0095.jpg" width="262" /></a></div>
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<div style="text-align: justify;">
लम्बा पुल... पुल पर ये एक दृश्य... कितने ही समय से मन में कहीं पैंठ गए हैं ये ताले और विचर रहा है कहीं उन नामों की कहानी की तलाश में चंचल मन... क्या सचमुच यूँ पुल पर अपने नाम का ताला जड़ कर चाभी सागर के हवाले कर के विश्वस्त हुए लोग हर मौसम में साथ होंगे आज भी... क्या सचमुच उनकी मान्यता ने उन्हें कभी न ख़त्म होने वाला साथ उपहार स्वरुप दिया होगा या जीवन की विडम्बनाओं से जूझते हुए कहीं अलग थलग सी कोई कहानी होगी उनकी... कौन जाने!</div>
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***</div>
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बहुत प्यारा सा कांसेप्ट है, ताले पर अपना नाम अपने प्रिय व्यक्ति के नाम के साथ लिख कर यूँ पुल पर टांक दिया जाए और चाभी हमेशा के लिए बहती धारा के हवाले, कि न कभी खुलेंगे ताले, न कभी जुदा होंगे दो लोग...! काश ऐसा ही आसान, ऐसा ही ताले चाभी के खेल सा सरल होता जीवन... </div>
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***</div>
<div style="text-align: justify;">
बीते मौसम में एक गर्मियों की शाम थी... हम इस लम्बे से पुल पर कई बार चले... कई बार पुल को पार किया... कभी दृश्यों को निहारने के लिए तो कभी दृश्यों को क्लिक करने के लिए... दो बार तो इन तालों के झुण्ड से चमत्कृत हम पुल के आर पार होते रहे... अनजाने से नाम, अनजाना देश और वही एक जानी पहचानी सी चाह कि अपने अपनों से कभी जुदा न हों हम...!</div>
<div style="text-align: justify;">
कितने एक से हैं न हम... धरती का कोई भी कोना हो, आकाश का कोई भी टुकड़ा हो... हर एक कोने में वही हैं मर्म... वही हैं अरमान... और वही एक हैं स्नेह विश्वास के प्रतिमान!</div>
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***</div>
<div style="text-align: justify;">
आज मौसम वो नहीं है जब खिली धूप में हम यूँ ही अनजाने रास्ते नापते हुए भटकते रहे... ये सर्दियों की एक शांत सी शाम है... खूब बारिश हो रही है और बूंदों की आवाज़ इस शान्ति में साफ़ सुनी जा सकती है... खिडकियों पर भी बूंदें हैं और मन भी भींगा सा है... बर्फ गिरने का मौसम नज़दीक है... सब सफ़ेद हो जाएगा... बर्फ की चादर सब ढँक लेगी... ऐसे में एक और नादान सा प्रश्न कहीं उठता है मन में...<br />
बर्फ के फाहों से ढँक कर सब स्वच्छ भी हो जाएगा क्या...? कौन जाने!</div>
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***</div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीर: एक पुल पर चलते हुए तालों ने यूँ ध्यान आकृष्ट किया था कि उस शाम की धूप अब तक खिली है भीतर और भींगे मौसम में सांत्वना बन कर खिल जाने का अपनी ओर से पूरा प्रयास कर रही है... ... ... !!</div>
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<br /></div>
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अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-79155000644564475902013-09-26T07:49:00.001+02:002013-09-26T13:24:03.137+02:00दीवार पर खिली कविता!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJphsa5-JA9J143QVyTb_UVVnwM8ZXyRkoKADZfVtauTxG-7csFTPIWQi5JLH7a7e3tqfnCCRzlj2JgQ9etNP-pVl1K2JuTzpxegJ5raE76zEGy-XAMD1oIiprKmdqc1EkugcaA6ZUA8M/s1600/IMG_2353.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJphsa5-JA9J143QVyTb_UVVnwM8ZXyRkoKADZfVtauTxG-7csFTPIWQi5JLH7a7e3tqfnCCRzlj2JgQ9etNP-pVl1K2JuTzpxegJ5raE76zEGy-XAMD1oIiprKmdqc1EkugcaA6ZUA8M/s320/IMG_2353.JPG" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
ये एक मामूली सी कुर्सी... और इस कुर्सी के यहाँ इस तस्वीर में होने की वजह धूप का वह कतरा जो ढ़लती शाम के साथ खिड़की पर रखे गमले में लहलहाते पत्ते का अक्स ले उभर गया दीवार पर...!</div>
<div style="text-align: justify;">
किसी रोज़ यूँ ही ये देख कर क्लिक किया था, और अगले ही क्षण फिर ये कतरा वहाँ नहीं था... तस्वीर है आज. उस क्षण को जीवंत करती, उस एक क्षण के भीतर समाते जाने की अनकही सी कहानी है ये तस्वीर...! कितना कुछ कहती हैं न दीवारें भी, धूप के एक कतरे ने जैसे स्वर दे दिए हों... मूक सी दीवार को, कोई शाम इस कदर मेहरबान रही हो कि अधखुली खिड़की से झाँक कर ढलते हुए अपना कोई निशाँ सा छोड़ गयी हो जिसके प्रताप से दीवार अब भी मुस्कुराती है...! दीवार पर कोई कविता खिली हो जैसे... बिन शब्दों वाली, अनकहा कुछ, मौन सा स्निग्ध और अपरिमेय!</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
कई बार होता है, नींद नहीं आती... हम आकाश तकते जागते रह जाते हैं... तारों भरे अम्बर के अकेलेपन को महसूसते हैं. वहाँ कोई एक नित घटने बढ़ने वाला चाँद होता है जो हमारी चेतना में जाने कबसे विद्यमान है, पर ऐसी ही कोई एक जगी जगी रात होती है जब हम उस चाँद को नए सिरे से पहचानते हैं, उसके गुण तहते हैं, उससे अपनी बातें कहते हैं...! दूर होकर भी वही है जो धैर्य से सब सुनने को तत्पर रहता है... सुनता ही तो आया है वो धरती वालों का दर्द... दिगदिगंत से; अपने घटने बढ़ने का दर्द कभी कहाँ कहा उसने किसी से...! क्या चाँद को कोई हमदर्द नहीं मिला...? कौन जाने!</div>
<span style="text-align: justify;">***</span><br />
<span style="text-align: justify;">जैसे एक टुकड़ा धूप का वैसे ही टुकड़ा-टुकड़ा मन और मन की कुछ बातें... तस्वीर ने लिखवाया, दीवार ने लिखवाया, परिचय की एक सुनहरी किरण है जिसने शब्दों का हाथ थाम उन्हें सजाया, सज गया है बेतरतीब जैसे, वैसा ही सहेज लिया गया इधर, बस और कुछ नहीं...!</span><br />
<div style="text-align: justify;">
</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-25325431377128025922013-09-08T06:20:00.000+02:002013-09-27T10:54:07.404+02:00कोहरा!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
कोहरा बहुत ज्यादा है… कुछ नहीं दिख रहा… मेरी खिड़की से जो हरियाली दिखती है, जो आसमान पर उगते सूरज द्वारा की गयी चित्रकारी दिखती है वो सब गायब… बस है तो कोहरा. ये बर्फ गिरने के मौसम वाला धुंधलापन नहीं है… न ही मुसलाधार बारिश में जो कुछ न देख पाने की स्थिति पैदा होती है, वह ही है.… यह कुछ और है, कोई और ही मौसम है, कोई और ही खेल है विधाता का! </div>
<div style="text-align: justify;">
कोहरा घना है, छंट जाएगा ऐसा दीखता तो नहीं पर छंट जाने की सम्भावना दिख जाती है कोहरे के बीच से ही… हरे पेड़ नहीं दिख रहे पर सामने ही चर्च से सटे जो खम्भा खड़ा है न इंटों का, वह झलक रहा है. पहले तो कभी यूँ नहीं दिखी यह दिवार, आज कोहरे ने सबकुछ छुपा कर न दिखने वाली कोई चीज़ दिखा दी है. </div>
<div style="text-align: justify;">
मन के कोहरे से झांकती एक ज्योत जैसे हम तक पहुँचने का प्रयास कर रही हो. कितना भी प्रयास कर ले ज्योत, हम कितनी भी मिन्नतें कर लें पर रौशनी तक का सफ़र तो खुद ही तय करना होता है. ज्योत तक खुद ही बढ़ना होता है.<br />
***</div>
<div style="text-align: justify;">
अब कुछ एक घंटे बीत चुके है, कोहरा छंट चुका है, मेरी खिड़की से दृश्यमान मंज़र फिर से दिखने लगे हैं और देख रहे हैं कि खम्भे की ओर से भी मेरा ध्यान हट चुका है.… </div>
<div style="text-align: justify;">
बस इतनी प्रार्थना करते हैं चुपचाप कि ये खम्भा तो वैसा ज़रूरी नहीं था ध्यान में न रहे कोई बात नहीं, पर जब मन का कोहरा छंटे तो कोहरे में दिख रही ज्योति विस्मृत न हो जाए हमसे!</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीरें: ये खिड़की से दिखता कोहरा और उसका छंटना…<br />
मन के कोहरे की कोई तस्वीर नहीं होती, ये हम सबके भीतर होता है… और हम सबकी ज्योत भी जुदा जुदा और केवल अपनी होती है, सो उन कोहरों की तसवीरें आप स्वयं तलाशें… तराशें! </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRHHnvXnuXWMMRc8-FqGF4oZjnRvGHVtrAPDWvVeviSVYGJy_jCbP_BeYZRL6LXMaNH6pgfq1QHNzcDy18tlI9hRo9DPLYve5whYYkb-1XrjmU0mFrhNX95j3BamsfDzfi_KL1IGpAA-w/s1600/IMG_2359.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="440" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRHHnvXnuXWMMRc8-FqGF4oZjnRvGHVtrAPDWvVeviSVYGJy_jCbP_BeYZRL6LXMaNH6pgfq1QHNzcDy18tlI9hRo9DPLYve5whYYkb-1XrjmU0mFrhNX95j3BamsfDzfi_KL1IGpAA-w/s640/IMG_2359.JPG" width="640" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFPCHndCyPQ9nHeAH1XAKta5GdaWqJPseaw2W9QeHxHNRwc8AaKSk1L2FiuUXKGNRrY_Gn9TO4ZRjkW8G6GTO8WSzmYnD7Uut149YBKT9K8WGRb6_Kco7BdlNJTdF6geylBkp0z2nDDR8/s1600/IMG_2365.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFPCHndCyPQ9nHeAH1XAKta5GdaWqJPseaw2W9QeHxHNRwc8AaKSk1L2FiuUXKGNRrY_Gn9TO4ZRjkW8G6GTO8WSzmYnD7Uut149YBKT9K8WGRb6_Kco7BdlNJTdF6geylBkp0z2nDDR8/s640/IMG_2365.JPG" width="379" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbvlGIEfSohaHzPJ1MlyoLeOky_reOgQkYXt9XYzLEgJblh6IltaXy7AsnnBEJIvYdwPqChumiZdJYM9K_M-BfZRLxoOtpdqFE69ZBDA9YY8kavzgxIoV55G2pYRjO9j0ii8SFkdsWmcU/s1600/IMG_2366.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="466" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbvlGIEfSohaHzPJ1MlyoLeOky_reOgQkYXt9XYzLEgJblh6IltaXy7AsnnBEJIvYdwPqChumiZdJYM9K_M-BfZRLxoOtpdqFE69ZBDA9YY8kavzgxIoV55G2pYRjO9j0ii8SFkdsWmcU/s640/IMG_2366.JPG" width="640" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-85651165897931612182013-09-05T17:27:00.003+02:002013-09-05T17:33:39.695+02:00कुछ यहाँ वहाँ के टुकड़े!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3FKxehdM7hb2QGzK3YH1de8Ryu3Cg2rSKT9qu8ze9VFwRD3qdO1YKwqEDJzwNm_AYckT3wP_MSuxFAsEYxoKe1T2S77pee-KYPUwbNlvBACuPUJy-6E77zOhBQpyo2yjqQpMYDg2nYo8/s1600/DSC_0021.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="263" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3FKxehdM7hb2QGzK3YH1de8Ryu3Cg2rSKT9qu8ze9VFwRD3qdO1YKwqEDJzwNm_AYckT3wP_MSuxFAsEYxoKe1T2S77pee-KYPUwbNlvBACuPUJy-6E77zOhBQpyo2yjqQpMYDg2nYo8/s400/DSC_0021.JPG" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
मिन्नतें करने से नहीं आती बारिशें... और न ही चिट्ठियां, उन्हें आना होगा तो बेधड़क आएँगी, खूब आएँगी... मन प्राण खुशियों से भिंगाने, नहीं आना होगा तो नहीं आएँगी, भले कितनी ही मिन्नतें कर ली जाएँ... चिट्ठियां तभी न आ सकती है जब कोई लिखे उधर से और पता टाँके हमारे नाम का... बारिशें तभी न बरस सकती हैं जब कोई हो वहाँ ऊपर बादलों की बोरियों की गाँठ खोलने वाला... ऐसा कोई होगा नहीं, या होगा भी पर उसके पास न हो फुर्सत और न ही फुर्सत निकालने की कोई तमन्ना तो कैसे होंगी बारिशें, कैसे पहुंचेंगी चिट्ठियां...</div>
<div style="text-align: justify;">
ये बदमाश मन ये छोटी सी बात क्यूँ नहीं समझता आखिर और बार बार उलझता है ऐसी पहेली से जो सुलझने को तैयार ही नहीं...!</div>
<div style="text-align: justify;">
हो तो यह भी सकता है कि चिट्ठियां आ सकें इस लायक हो ही नहीं हम... बारिशें भी खूब जानती हैं उन्हें कहाँ बरसना है, उनको संयंत्रित नहीं कर सकते हम...! अपने आप से ही नाराज़ होकर खूब सारी बूंदें आँखों से बरस जाएँ ये ही हो शायद अपने हिस्से की बारिश....</div>
<div style="text-align: justify;">
और चिट्ठी... उसकी तो आस ही व्यर्थ है...!</div>
<div style="text-align: justify;">
<i>6.7.12</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>***</i></div>
<div style="text-align: justify;">
कभी हुआ है ऐसा कि आवाजें सुनने को तरस गए हों? एक अजीब सी नीरवता हो जहां अपने आप तक पहुँच पाना भी मुश्किल सा लग रहा हो?</div>
<div style="text-align: justify;">
होता है अक्सर ऐसा… आवाजें सुनने को तरसे हुए, किसी अज़ीज आवाज़ तक पहुंचे भी हों पर संवाद की सम्भावना शून्य लगी हो और रुंधे हुए गले ने किसी <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Hello" target="_blank">हेल्लो</a> का ज़वाब दिए बगैर काट दिए हों फ़ोन. होता है ऐसा, कई बार हुआ है. स्कूल के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी हॉस्टल में होते थे तब लगातार होता था… (घर से दूर रहना असह्य हुआ करता था और हमसे लौट जाने के कितने ही उपक्रम करवाता था… पर रहना तो पड़ा ही और पूरे सात वर्ष रहना हुआ, खैर ये अलग कहानी है.…. ) अब भी होता है रुंधे गले द्वारा यूँ ही संवाद करने की असमर्थता के कारण फोन डिसकनेक्ट करना… यहाँ वहाँ यदा कदा.</div>
<div style="text-align: justify;">
अपनी आवाज़ तक पहुंचना भी कभी कभी कितना नामुमकिन सा लगता है न!</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
पहला... ये शब्द ही ऐसा है, कि इसके बाद जो भी शब्द लगे वो इतना खूबसूरत हो जाता है कि फिर आजीवन उसके मोह से नहीं निकला जा सकता!</div>
<div style="text-align: justify;">
ज़िन्दगी भी वैसी ही खूबसूरत शय है... जी जानी चाहिए, हर हाल में!</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
अलविदा कहते हुए जो आँखें भर आयीं तो अब तक नम हैं, दूर हो कर भी लोग साथ हो सकते हैं.… यही एक बात है जो बहुत बड़ी सांत्वना है जीवन के लिए.… </div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
जीवन ने जो भी सीखाया, सब सीख कहाँ पाए हम, अब भी राहों में चलना कहाँ आता है हमें! जीवन की पाठशाला के अच्छे विद्यार्थी होने का मर्म ही समझ रहे हैं और दर्द रुपी शिक्षक हर पल हमारे सिरहाने बैठा हमें राह दिखा रहा है, कितना सीख समझ पाते हैं यह तो वक़्त पर छोड़ देना ही बेहतर है.</div>
<div style="text-align: justify;">
सभी <a href="http://www.anusheel.in/2010/09/blog-post_710.html" target="_blank">गुरुओं</a> को नमन!</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीर: बाल्टिक सागर में डूबती एक शाम… </div>
<div style="text-align: justify;">
सब टुकड़े हैं, कोई किसी से जुड़ा नहीं है वैसे ही यह तस्वीर भी असम्बद्ध है टुकड़ों से फिर भी मेरा मन एक सम्बद्धता देख रहा है सभी टुकड़ों में तो तस्वीर भी साथ टांक रहे हैं.… हो सकती है न ये डूबती शाम भी विशाल सागर में निपट अकेली और उदास…!</div>
<div style="text-align: justify;">
और हाँ इस बेवजह के यहाँ वहाँ में, सबसे महत्वपूर्ण <b><i><u><a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Hello" target="_blank">hello</a></u></i></b> की कथा कहानी, जिसका लिंक हमने ऊपर भी दिया है… कितनी बार कहते हैं न हम यह शब्द पर कहाँ जानते हैं इसके बारे में इतना कुछ.…!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-50187078740491556732013-08-21T02:09:00.001+02:002013-08-21T02:14:46.312+02:00एक कविता याद आती है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbTlUhJ1VNPBnAKDO7cp2Dn9TQWMGzI6q8RS6otTdcxot0sKP9jTnE0e4ORXW-dFXcuOnQsaQDENphs-pHEP5ZcdOj5WbhDtpowlLa0ohOx2EK5r3oVhjMSET9twaJqx0fkz9aDnPPYZU/s1600/IMG_0806b.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="281" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbTlUhJ1VNPBnAKDO7cp2Dn9TQWMGzI6q8RS6otTdcxot0sKP9jTnE0e4ORXW-dFXcuOnQsaQDENphs-pHEP5ZcdOj5WbhDtpowlLa0ohOx2EK5r3oVhjMSET9twaJqx0fkz9aDnPPYZU/s320/IMG_0806b.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<span style="text-align: justify;">जीवन कितना सुन्दर है… कितने सुन्दर हैं लोग… और कितनी सुन्दर होती थीं वे राखियाँ जो </span><a href="https://www.facebook.com/School.of.Hope.Jampot" style="text-align: justify;" target="_blank">स्कूल ऑफ़ होप </a><span style="text-align: justify;">के बच्चे बनाते थे…! याद है हमें ये मौसम आता था, रक्षा बंधन की धूम होती थी तब हमारे </span><a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Rajendra_Vidyalaya,_Jamshedpur" style="text-align: justify;" target="_blank">स्कूल</a><span style="text-align: justify;"> में स्कूल ऑफ़ होप से बन कर आई राखियाँ बिकती थीं, हम सभी खरीदते ही थे! आज रक्षा बंधन पर हमें वे राखियाँ याद हो आयीं! स्कूल ऑफ़ होप में मुस्कुराती ज़िन्दगी को सलाम!</span><br />
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
एक कविता भी याद आती है… उन दिनों की, हमारी कोर्स बुक में हुआ करती थी: :</div>
<br />
<i>The Feather of Dawn</i><br />
<br />
Beloved I offer to you<br />
In tender allegiance anew<br />
A bracelet of floss, let me twist<br />
And violet, to girdle your wrist.<br />
<br />
Accept this bright gage from my hand<br />
Let you heart its sweet speech understand<br />
The ancient high symbol and end<br />
In wrought on each gold-threaded strand,<br />
The fealty of friend unto friend.<br />
<br />
A garland how frail of design,<br />
Our spirits to clasp and entwine<br />
In devotion unstained and unbroken,<br />
How slender a circle and sign<br />
Of secret deep pledges unspoken!<br />
<br />
<i>- Sarojini Naidu </i><br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
कितना दोहराते थे न हम कविताओं को उन दिनों परीक्षा की दृष्टि से! उसके अर्थ, उसकी व्याख्या, पंक्तियाँ और पंक्तियों के बीच का मौन सब बोलता था. कितने मन से पढ़ाई गयी थी वे कवितायेँ हमारे टीचर्स द्वारा, उस वक़्त कहाँ था यह एहसास हमें! आज भी याद हैं कवितायेँ, कहानियां भले और पाठ भूल गए हों इतिहास भूगोल व विज्ञान के!</div>
<div style="text-align: justify;">
साहित्य, कविता, कथा: ये सब मन में बसते हैं… मन से ही पढ़े जाते हैं, तभी तो याद रह जाते हैं! जिस भी क्षेत्र से जुड़े लोग हों साहित्य के प्रति एक सहज अनुराग होना ही चहिये… इन फैक्ट, होता ही है!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीर: धागे में गुथे मोती इस रिश्ते का सौन्दर्य दर्शाते हैं और सरोजिनी जी की कविता में वर्णित <i>A garland how frail of design </i>को भी सत्यापित करते हैं… <i>secret deep pledges unspoken </i>को पढ़ लेने की संवेदनशीलता हममें हो, यही कहता है <a href="http://www.anusheel.in/2010/08/blog-post_8107.html" target="_blank">धागा</a>!</div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-59898621162750499962013-08-18T07:47:00.000+02:002013-08-19T11:09:22.288+02:00जिसने सबक याद कर लिया उसे छुट्टी नहीं मिली!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-U7mZXnigXPZ6yQnTipXaInM8sa9VdWXOrmMvkjeyb80IOYLZ-9n21zxpDhE8p-U80QcM0ZOZRNp54rdKXIrfAfzxv-TT-o8Fg5dqk0F-da2-kRsEIxCVfPsEXHQXT9AmK2U6TOcSWR4/s1600/DSC_0100.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="333" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-U7mZXnigXPZ6yQnTipXaInM8sa9VdWXOrmMvkjeyb80IOYLZ-9n21zxpDhE8p-U80QcM0ZOZRNp54rdKXIrfAfzxv-TT-o8Fg5dqk0F-da2-kRsEIxCVfPsEXHQXT9AmK2U6TOcSWR4/s400/DSC_0100.JPG" width="400" /></a></div>
<i><br /></i>
<i>सैर करने आये थे सैर-ए-गुलशन कर चले</i><br />
<i>संभालो माली बाग़ अपना हम तो अपने घर चले </i><br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
ब्रिलियंट ट्युटोरियल के कांटेक्ट क्लासेज में जमशेदपुर आया था एक शिक्षक, पुणे से, १९९९ में! केमिस्ट्री के पाठों के साथ जीवन के कई पाठ पढ़ा जाने वाला वह इंसान जाते हुए यही शेर कह गया था...! जो याद है, वह लिख दिया ऊपर... किस शायर ने कहा न ये ज्ञात है और न ही हमें है वर्तनी की तमीज़ का ही पता. हम तो बस इतना जानते हैं कि यह कह कर विदा लेने वाला वह शिक्षक हमेशा के लिए अपना हो गया... हम विद्यार्थियों को हमेशा के लिए अपना बना गया!<br />
कितने ही नुस्खे सिखाये उसने <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/File:Periodic_table_%28polyatomic%29.svg" target="_blank">पीरियोडिक टेबल</a> कंठस्त करने के, फिजिकल केमिस्ट्री के कितने सिद्धांतों को आसानी से समझाया और सबसे ज्यादा जो चीज़ सीखाई वह थी जुड़ना अपने आप से, एक दूसरे से, समाज से और राष्ट्र से!<br />
आर्गेनिक केमिस्ट्री पढ़ाते हुए कब वो सामाजिक सिद्धांतों की व्याख्या करने लगते, पता ही नहीं चलता और सबसे बड़ा चमत्कार यह था कि सबसे अधिक इफेक्टिव उनके ही क्लासेज रहे.</div>
<div style="text-align: justify;">
होता क्या है, दो तीन दिनों के कांटेक्ट क्लासेज में नए शिक्षक के साथ ताल मेल बिठाने में ही वक़्त लग जाता है... पर यह तो ऐसा इंसान था कि आते ही सबसे यूँ जुड़ गया था मानों हम वर्षों से उसके विद्यार्थी रहे हों.</div>
<div style="text-align: justify;">
उनके फ़ोल्डर्स में बहुत सारी चिट्ठियां थीं... कुछ उन्होंने हमें दिखायीं भी, ये सब उनके समय समय पर विद्यार्थी रहे लोगों के ख़त थे. हमें होम्वर्क मिला था कि उनकी बताई गयी युक्ति से पीरियोडिक टेबल कंठस्त करेंगे और यह करने के बाद उन्हें पत्र लिखना, होम्वर्क किया, ये कन्फर्म करने के लिए किया जाने वाला उपक्रम होगा. उन्होंने तुरंत स्पष्ट किया था कि वे अपने विद्यार्थियों द्वारा लिखे हर पत्र का जवाब देते हैं...!<br />
दो दिन बीत गए, कांटेक्ट क्लासेज की अवधि समाप्त हुई और ब्रिलियंट ट्युटोरियल का कारवां आगे बढ़ गया...!</div>
<div style="text-align: justify;">
उनके आदेशानुसार चीज़ों को कंठस्त कर हमने पत्र लिखा था उन्हें... फिर भूल गए लिखकर. कुछ ही दिनों में उनका जवाब आया, एज ही हैड प्रॉमिस्ड! एक बेहद सुन्दर अनुभूति थी उस पत्र का मिलना... फिर समय समय पर उन्हें कई पत्र लिखे हमने, सबके जवाब भी पाए. बी एच यु के दिनों में भी हॉस्टल से उनको पत्र लिखते थे, जैसे कि शिक्षक दिवस के मौके पर, और जवाब भी पाते थे... अब वो हमें यूँ संबोधित करने लगे थे... <i>Dear Anupama Beti </i>और मेरी कविताओं से भी उनकी पहचान हो गयी थी!</div>
<div style="text-align: justify;">
याद नहीं कब अंतिम बार लिखा था... कब अंतिम बार उनके जवाबी अंतर्देशिये पाए थे... शायद २००५ या २००६ के दौरान. फिर इधर उधर उलझ गए, घर बदल गया... देश छूट गया और वह डायरी भी जिसमें उनका पता लिखा था... डायरी होगी घर में कहीं, वापस लौटेंगे तो ढूंढेंगे पर अभी के लिए असमंजस यह है कि आधा अधूरा पता जो याद है उसतक चाहें भी तो चिट्ठी पोस्ट कैसे करें... उनका नाम तो विस्मृत हो ही नहीं सकता... पते के नाम पर जो याद है वह बस अपार्टमेंट का नाम है, शेष कुछ भी ठीक ठीक याद नहीं!</div>
<div style="text-align: justify;">
वे रिटायर्ड प्रोफ़ेसर थे ए. एफ़. एम. सी. पुणे से, उनके एक हाथ में एक छड़ी हुआ करती थी जिसके सहारे वे चलते थे और उत्साह हुआ करता था अपरीमित उनकी वाणी में!</div>
<div style="text-align: justify;">
एक और कुछ कहा था उन्होंने यूँ... </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मर्तबे इश्क का दस्तूर निराला देखा </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>जिसने सबक याद कर लिया उसे छुट्टी नहीं मिली</i><br />
<i><br /></i>
शब्द व वर्तनी में सुधार की गुंजाइश हो सकती है, हमें जो याद है सो लिखा है बस...</div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br /></i>
<i>The institution of love follows a different set of rules... here the ones who learn the lesson are captivated for life... </i><br />
He explained this to a bunch of confused students, (all completely finding themselves lost in preparation of various entrance examinations), with full conviction and authority!</div>
<div style="text-align: justify;">
He further explained to us drawing a parallel to our situation... Once we follow his instructions and learn the subject his way, he guaranteed our falling in love with the subject and thus never getting out of the subject's spell.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इस तरह विस्तृत कैनवास पर चित्र खींच गया वह ट्रैवलर, अंदाज़ अलग था उसका... फिर कोई ऐसा नहीं मिला जो एक दो दिन की सीमित घंटों की कक्षा में अपने लेक्चर से यूँ छाप छोड़ गया हो कि जीवन भर के लिए वो पथ अपने हो गए...!</div>
<div style="text-align: justify;">
तो एक पत्र यहीं पर उनके लिए... </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
Dear Professor Uncle,</div>
<div style="text-align: justify;">
चरणस्पर्श प्रणाम!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
पूर्ण विश्वास है कि आप स्वस्थ व सानंद होंगे... अपना ज्ञान और प्यार विद्यार्थी समुदाय में उसी उत्साह के साथ मुक्तहस्त लुटा रहे होंगे...! आपने ही कभी पत्र में लिखा था <i>we should do our job well and leave all to destiny for destiny knows what is best for us...</i></div>
<div style="text-align: justify;">
आज जब कभी विचलित होता है मन तो आपकी यह बात ध्यान में अवश्य आती है...</div>
<div style="text-align: justify;">
<i>With prayers for your good health and happiness,</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br /></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>Yours Sincerely,</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>Anupama</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 21px;">*****</span><br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 21px;">तस्वीर:</span> आज पता नहीं कहाँ से ये लिख गया और तस्वीर ढूंढी कोई अनुकूल तो इस तस्वीर ने रोक लिया जबकि हम बाग़ की छवि लगाना चाहते थे. ये तस्वीर <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Junibacken" target="_blank">जुनिबैकेन</a> के पास ली गयी थी यहीं स्टॉकहोम में. कोई बैठा पढ़ रहा है मुनिवत, और पास बैठी नन्हीं चिड़िया की आकृति जैसे झाँक रही हो पन्नों में. </div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीर का क्या है... जोड़ना चाहें तो जोड़ दें लिखित भावों से या फिर अलहदा भी रहे वो तो कोई बात नहीं... !आखिर कहाँ सब बातें पर्फेक्ट्ली जुड़ पातीं हैं आपस में... केयोस के कनफ्यूज़न में भी संगीत होता है... बस सुनने की क्षमता होनी चाहिए!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-65400834154173027012013-08-16T12:54:00.000+02:002013-08-16T15:30:54.228+02:00एक चिट्ठी 'अभिज्ञान' के नाम!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDU6xT89zliKYXQfkiaJzZMU2-dHhaNCO3uqtflTeKwSceE6NW2wTn-blNlIf9sa12WoebcoFX5aN_2f8ksUSfvEl4QP9pbwg7rqXAsMRC9POl76KCY-vzct8uunkV3VpE2ROAQPQilc0/s1600/994889_449727325134443_1322810470_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDU6xT89zliKYXQfkiaJzZMU2-dHhaNCO3uqtflTeKwSceE6NW2wTn-blNlIf9sa12WoebcoFX5aN_2f8ksUSfvEl4QP9pbwg7rqXAsMRC9POl76KCY-vzct8uunkV3VpE2ROAQPQilc0/s320/994889_449727325134443_1322810470_n.jpg" width="307" /></a></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
कितनी मोहक तस्वीर है, आँखों की चमक तिरंगे को देख जैसे और बढ़ गयी हो… नन्हे हाथों ने जैसे थाम ली हो धरोहर और तिरंगे की आन बान और शान से परिचित होने की कोशिश कर रहा हो… तीन रंगों के मतलब को समझने का प्रयास कर रहा हो…! कितनी भोली हैं आँखें और कितना प्यारा है यह अंदाज़! </div>
<div style="text-align: justify;">
हमें यह तस्वीर सहेज लेने की बेहद इच्छा हुई और गाने का मन हुआ-</div>
<div style="text-align: justify;">
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा / झंडा ऊंचा रहे हमारा </div>
<div style="text-align: justify;">
यही गीत सुनते गुनगुनाते हुए बस हम इसकी आँखें देखे जा रहे हैं और होठों पर खिली हंसी को निहार रहे हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
यह अभिज्ञान है, मेरी बुआ का पोता, और हम इसकी बुआ… </div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
अभिज्ञान, तुम्हें हमने बस तस्वीरों में ही तो देखा है और वो भी बस इधर… लेकिन कितने जाने पहचाने लग रहे हो… जैसे ये चमकती आँखें हमने हमेशा से देखी हुई है… </div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हारी यह तस्वीर जिसने भी खिंची है, उसे मेरी ओर से बड़ा वाला थैंक यू कहना! तुमसे पता नहीं कब मिलना होगा, इसलिए लिख रहे हैं यह पत्र… बड़े हो जाओगे तो पढ़ना कभी…! </div>
<div style="text-align: justify;">
पल पल की तस्वीरें इकट्ठी होती जायेंगी, जाने इतनी सारी अपनी तस्वीरों में तुम यह वाली ढूढ़ पाओगे या नहीं इसलिए इसे हम यहाँ चिपका कर अपने पास रख ले रहे हैं. अब ये डिजिटल फोटोग्राफ्स का ज़माना है, कभी कभी बड़े से तस्वीरों के भण्डार में खो जाती हैं कोई तस्वीर लैपटॉप के फ़ोल्डर्स में ही कहीं… </div>
<div style="text-align: justify;">
ये खो देने वाली तस्वीर है ही नहीं, इसे बहुत जगह सहेज कर उसी तरह रखा जाना चाहिए जैसे हम अपना कोई बहुत ज़रूरी डॉक्यूमेंट कई जगह रखते हैं… हार्ड डिस्क में, डेस्कटॉप पर, मेलबॉक्स में एंड सो ओन एंड सो फोर्थ:)</div>
<div style="text-align: justify;">
इस तस्वीर को और इस मुस्कान को हम अपने पास रखेंगे, जब भी नीला अम्बर उदास होगा न, ये मुस्कान कोई इन्द्रधनुष रच दिया करेगी उसपर और सब सुन्दर और खिला खिला सा हो जायेगा…! है न?</div>
<div style="text-align: justify;">
यूँ हमें मिलने का शुक्रिया अभिज्ञान!</div>
<div style="text-align: justify;">
यहाँ आने के लिए और ये भोलापन यहाँ बिखेरने के लिए भी बहुत बहुत धन्यवाद!</div>
<div style="text-align: justify;">
अपने मम्मी पापा को मेरा प्रणाम बोलना… </div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीरें कितना कुछ जोड़ती हैं… कितना कुछ बोलती हैं, १५ अगस्त की शुभ बेला में तीन रंग की सुषमा कुछ यूँ भी आई एक फ़रिश्ते के ज़रिये हमतक! </div>
<div style="text-align: justify;">
फ़ेसबुक! शुक्रिया तुम्हारा भी, माध्यम तो तुम्हीं तो रहे इस तस्वीर को हमतक पहुँचाने के.</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Pingali_Venkayya" target="_blank">पिंगली वेंकैया</a> ने जिस निष्ठा व समर्पण के साथ तिरंगे की परिकल्पना की होगी, उसे हम कोटि कोटि प्रणाम करते हुए हम अपने तिरंगे का वंदन करते हैं!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जय हिन्द!</div>
<div style="text-align: justify;">
जय भारत!!</div>
<br /></div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-44185029795456382352013-08-04T05:16:00.000+02:002013-08-04T06:00:36.137+02:00ये उस समय की बात है...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcpBis9_fBn3OhYHtqxnPKxvQwRRhuCDpvXwQGJnVgtkaH-G8qZfD39A18CXm68uNs_rGBYpQCu2afE11XkKWPwdjCuw4nquykVvkR0qEytxv46AUk7EwX-Xoq3NozE6zTrqD1H_BYaxg/s1600/ganga.PNG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="241" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcpBis9_fBn3OhYHtqxnPKxvQwRRhuCDpvXwQGJnVgtkaH-G8qZfD39A18CXm68uNs_rGBYpQCu2afE11XkKWPwdjCuw4nquykVvkR0qEytxv46AUk7EwX-Xoq3NozE6zTrqD1H_BYaxg/s320/ganga.PNG" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हमें ठीक ठीक याद नहीं कब फ्रेंडशिप डे जैसी चीज़ हमारी चेतना के धरातल पर वजूद में आई. ये उस समय की बात है जब दोस्तियाँ ऐसे किसी दिन का इंतज़ार नहीं करती थी अपने आप को सेलिब्रेट करने को… नब्बे के दशक में हमारा बचपन हर रोज़ फ्रेंडशिप डे ही तो मनाता था, वह दशक समाप्त हुआ और हमारे जीवन का सुनहरा अध्याय भी समाप्त हो गया स्कूली जीवन की समाप्ति के साथ... जमशेदपुर छूटने के साथ. पर उस समय की दोस्तियाँ आज भी पूर्ववत ही हैं. हमें याद आता है स्कूल से निकलने के बाद जब सभी अपनी अपनी राह चले तो भी कुछ था जो जोड़े रहा… ये उस समय की बात है जब हम कुछ एक दोस्त एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे… अपने कॉलेज की बातें, घर से दूर रहने के अनुभव और भी कितना कुछ. हमें याद है तभी कभी उन लिखे जाने वाले अंतर्देशिये या पोस्टकार्ड में एक दूसरे को फ्रेंडशिप डे विश किया होगा पहली बार हमने, ये बीते दशक के पूर्वार्द्ध की बात है. ये वो समय था जब हमारे पास डिजिटल कैमरे नहीं हुआ करते थे पर होते थे संजो लेने योग्य कितने ही पल… ये वो समय था जब चिट्ठियां आउटडेटेड नहीं हुईं थी कि हमने लिखीं और पायीं कई चिट्ठियां स्कूल के बिछड़े दोस्तों से. फिर ज़िन्दगी और समय भागते रहे अपनी रफ़्तार से… बीतता रहा वक़्त और हम उस समय तक आ गए जब इन्टरनेट के माध्यम से जुड़ाव कितना सहज हो चुका है… लगता है सब आसपास ही हैं, सारी खुशियाँ और गम बांटे जा सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे स्कूल में हम लंच ब्रेक में टिफ़िन बाँट लिया करते थे. एक फ़ोन कॉल से कनेक्ट हो सकते हैं दुनिया के किसी भी कोने से किसी भी कोने में… हर उस दोस्त से… जिसके बिना दोस्ती की परिभाषा ही हमारे लिए अधूरी है… और ऐसा जिस जिस दिन हो पाता है, वह दिन कितना सुखमय होता है यह अवर्णनीय है…! एक दशक से अधिक वक़्त हुआ, जिनसे मिले नहीं, उनसे ऐसा जुड़ाव कि लगता ही नहीं स्कूल में वो रोज़ रोज़ मिलने वाला क्रम कभी बंद भी हुआ हो इन सालों में! </div>
<div style="text-align: justify;">
स्कूल के अंतिम दिनों में कभी <a href="http://www.anusheel.in/2010/10/blog-post_26.html" target="_blank">यह कविता</a> लिखी थी, खो गयी, फिर स्मरण के आधार पर <a href="http://www.anusheel.in/" target="_blank">अनुशील</a> पर सहेजा… कुछ पंक्तियाँ बिल्कुल याद रहीं: :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जब घिरे हुए हों अंजानो से </div>
<div style="text-align: justify;">
तब पता चलता है </div>
<div style="text-align: justify;">
पहचाने चेहरों </div>
<div style="text-align: justify;">
के बीच होना क्या चीज़ है! </div>
<div style="text-align: justify;">
जगह छूटती है </div>
<div style="text-align: justify;">
तब एहसास होता है</div>
<div style="text-align: justify;">
अपने आसमान तले </div>
<div style="text-align: justify;">
अपनी ज़मीन </div>
<div style="text-align: justify;">
कितनी अज़ीज है! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
…. और कुछ पंक्तियाँ विस्मृत हो गयीं. पुनर्लेखन ने कविता का स्वरुप कुछ कुछ तो अवश्य बदल दिया पर </div>
<div style="text-align: justify;">
ये कविता उस स्वर्णिम वक़्त की याद तो दिलाती ही है जब मेरे पास एक हाथ की दूरी पर कोई न कोई अनन्य मित्र हुआ करता था… ये वो समय था जब भविष्य की रूपरेखा कुछ विशेष नहीं दिख पाती थी… और वर्तमान का मोह छूटता नहीं था! </div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
जीवन यात्रा में आगे भी कितने लोगों से पहचान होती है, दोस्त मिलते हैं, अपनापन पनपता है मगर बचपन की दोस्ती तो बचपन की दोस्ती है न… अक्षर से पहले पहल जब पहचान हो रही थी उस समय का साथ है जिनसे, वो तो अनन्य होंगे ही… रिश्तों और रास्तों की तमीज़ सिखाने वाला विद्यालय तो हमेशा मन में बसा ही रहेगा चाहे हम कहीं भी चले जाएँ, कितने भी बड़े हो जाएँ, कितने भी बूढ़े हो जाएँ!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****<br />
बहुत सारी यात्राएं करते हैं हम जीवन में… जीवन ही एक यात्रा है… और इस यात्रा में मिलने वाले मित्र ही जीवन की पूँजी हैं! सबसे पहले हम अपने आप से मित्रता करें, औरों के लिए फिर हम और अच्छे मित्र बन पायेंगे; एक क्लिक से फ्रेंड और एक क्लिक से ही अन्फ्रेंड कर दिए जाने वाले इस समय में कुछ तो अलग मिसालें हों दोस्ती की!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
दोस्ती का रिश्ता कितना दिव्य है… आखिर अर्जुन का रथ हांकने वाले प्रभु उनके सखा ही तो थे… सुदामा के पाँव पखारने वाले कृष्ण से बड़ी मिशाल कहाँ है मित्रता की. लिखते हुए कभी लिखा था <a href="http://www.anusheel.in/2010/10/blog-post_13.html" target="_blank">कविता</a> में: :<br />
<br />
कृष्ण-सुदामा की </div>
<div style="text-align: justify;">
अद्भुत मैत्री की झाँकी </div>
<div style="text-align: justify;">
कहाँ मिलेगी आज...</div>
<div style="text-align: justify;">
उस भाव से भिन्न </div>
<div style="text-align: justify;">
अगर है कुछ,</div>
<div style="text-align: justify;">
उससे, </div>
<div style="text-align: justify;">
कमतर अगर है कुछ,</div>
<div style="text-align: justify;">
तो- </div>
<div style="text-align: justify;">
उसे दोस्ती- </div>
<div style="text-align: justify;">
कैसे कह दी जाये?</div>
<div style="text-align: justify;">
दोस्ती की क्या व्याख्या की जाये!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
तस्वीर: क्या तस्वीर लगायें? बचपन की, स्कूल के प्रांगन की, जमशेदपुर स्थित जुबली पार्क की जहां कितने ही स्कूल पिकनिक पर कितनी बार गए हम, दोस्तों की, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रास्तों की, विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित सेंट्रल लायब्रेरी की, अस्सी या दशास्वमेध घाट की जहां गंगा की लहरों से पहली बार पहचान हुई थी या फिर अथाह समुद्र की तस्वीर डाल दें यहाँ… मित्रता की अकथ भावना को कह जाने के लिए? वैसे इतना सोचने की क्या आवश्यकता… तस्वीर से क्या होता है, तस्वीर तो मन में होनी चाहिए, यादों और भावनाओं को सबसे अधिक सूक्ष्मता से मन ही तो सहेजता है न. अब मन की तस्वीर कैसे लगायें सो वही तस्वीर लगा देते हैं जहां पर मन अभी है फिलहाल… गंगा में डोलती एक नाव पर! </div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-63086952812995337112013-07-29T12:23:00.000+02:002013-07-29T20:05:05.853+02:00अँधेरी दीवार में कुछ एक भुरभुरी ईंटें!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKg9e5c2C_oUyRDUuadioKngI81axPXEhyphenhyphenHvEFKwXDM4bnnbXm-yJSs_EBY7qJQTv9CsxYsS0Fh9Cp3svRFYTUGHCnt6Woe_rdA3FrfC3ZL7K_Hu5rwWJv5ra6EAP5Lt7PKRJYhVsP9_8/s1600/DSC_0345.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="237" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKg9e5c2C_oUyRDUuadioKngI81axPXEhyphenhyphenHvEFKwXDM4bnnbXm-yJSs_EBY7qJQTv9CsxYsS0Fh9Cp3svRFYTUGHCnt6Woe_rdA3FrfC3ZL7K_Hu5rwWJv5ra6EAP5Lt7PKRJYhVsP9_8/s400/DSC_0345.JPG" width="400" /></a></div>
<br />
बिखरा हुआ घर… धोये जाने के लिए राह तकते ढ़ेर सारे बर्तन… करीने से रखे जाने के लिए प्रतीक्षारत फैली हुई किताबें… तह किये जाने को बहुत सारे कपड़े… लिखे जाने को आकुल कई कवितायेँ… पूरे किये जाने को सर पर लटकते कुछ असाइनमेंट्स… और इस भीड़ में अपने एकांत के साथ एक अकेले हम! क्या करें… कहाँ से करें शुरू कि ज़रूरी हैं इनमें से हर एक काम को पूरा करना! </div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसे में सोचते हैं… चलो कुछ देर के लिए स्थगित रहे सबकुछ… ठीक वैसे ही जैसे कि होता है हम सबके साथ कभी न कभी कि सांसें आती जाती रहती हैं पर स्थगित हो जाता है जीवन, जैसे रूक गया हो किसी मोड़ पर ठगा सा… अपने आप को ही… बेतरतीब खोजता हुआ!<br />
*****<br />
लग रहा है, सबकुछ स्थगित कर अभी अपने आप से बातें करना ही ठीक है… कि रात भर बरसा है अम्बर… उसकी ओर जरा नज़रें टिकाये कुछ थाह लेना सबसे ज़रूरी है अभी…! ऐसा प्रतीत होता है मानों पत्ते एक दूसरे से बातें कर रहे हों और पूरा पेड़ झूम रहा हो यह सौहार्द देख… एक पेड़ का स्पंदन दूजे तक संप्रेषित होता हुआ बांधे हुए है मेरे मन को कमरे के झरोखे से ही… कि यहाँ से महसूस हो रही है वह हवा भी जो माध्यम बन कर एक तरू की संवेदना से दूसरे को जोड़ती हुई बढ़ी जा रही है… अपने गंतव्य की ओर… अपना क्षितिज तलाशने! </div>
<div style="text-align: justify;">
*****<br />
घोर निराशा के दौर में… इंसानियत के लुप्तप्राय से होते कठिन समय में… दिल दहलाने वाली घटनाओं को रोज़ खबर बनता देखती विवशता में… जैसे हादसों का एक पूरा शहर बसा हो भीतर: ऐसे में धीमे ही सही, सांस ले रही संभावनाओं के प्रति आश्वस्त होने को, हम ऐसी ही देखे जाने को सहर्ष प्रस्तुत छवियों एवं अनुभूतियों का सहारा लेते हैं…! और जीवन को मिल जाती है कहीं से ठीक उतनी उर्जा कि सांस चलती रहे… सहेजा जा सके वह सबकुछ जो अपने जिम्मे है… निपटाया जा सके अपना छोटा छोटा काम कि व्यवस्थित होंगी चीज़ें तो मन भी व्यवस्थित होगा!<br />
*****<br />
ये लिखते हुए हमें स्मरण हो आ रही है <i>उले स्वेंसन</i> की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ… अनुवाद करते हुए जैसे कथ्य आत्मसात हो गया था भीतर फिर अपनी भाषा में सहजता से उतर भी गया… कवि की बात ही इतनी अपनी सी लगी… विश्वास जगाती हुई… विडम्बनाओं के विरुद्ध और जीवन के प्रति प्रतिबद्धता का शंखनाद करती हुई ::<br />
<br />
हमें जीने की इच्छा होनी चाहिए,<br />
एक इच्छा जिससे कि गति के नीरस लय में सांस रुकने की स्थिति न आने पाए<br />
और न बैठे ही रहें पुरातन शुष्क परिरक्षित शव की तरह मृत आँखें लिए.<br />
हम सबके पास होनी चाहिए अँधेरी दीवार में<br />
कुछ एक ऐसी भुरभुरी ईंटें,<br />
जो ज़रुरत पड़ने पर हटायी जा सकें<br />
और खुल सके परिदृश्य विस्तृत सागर की ओर.<br />
*****<br />
स्पंदित पेड़ का पत्ता पत्ता मेरे लिए अभी इन पंक्तियों को दोहराता हुआ झूमता सा लग रहा है… और हम कहीं न कहीं आश्वस्त और शांत कुछ एक अक्षर समेट रहे हैं…! कुछ एक ईंटें हटाकर उस पार देखने का प्रयास कर रहे हैं जहां लहरा रहा है सागर और लहरें भी वही कुछ प्रेषित कर रही हैं जो हिलते डुलते पत्ते कहे जा रहे हैं तब से अनवरत…!<br />
*****<br />
तस्वीर: यूरोप के एक छोटे से देश एस्टोनिया के सबसे बड़े शहर और राजधानी तालिन्न में ली गयी है. आज दीवार के भुरभुरे ईंटों की बात आई तो यह तस्वीर भी याद हो आई… आज लग जाए यहाँ… दूर किसी सागर के परिदृश्य की ओर खुलने की आशा लिए हुए. </div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-55597477813395176402013-07-27T04:53:00.000+02:002013-07-27T05:12:12.531+02:00कल के लिए!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtut1bbevHRlqQjGJPHjumrSDpMAdlZHKmd_UckXVNsWFGBiLuiXY7Jc1pUJLpCTdiI-9nLhemTxci6HJdvn93xhTyc8JaTSCWscn6GUTsvzZVVkceLsdh-VuO1tLJUZrU4zissz0l_IA/s1600/35232_145941082086392_4162060_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtut1bbevHRlqQjGJPHjumrSDpMAdlZHKmd_UckXVNsWFGBiLuiXY7Jc1pUJLpCTdiI-9nLhemTxci6HJdvn93xhTyc8JaTSCWscn6GUTsvzZVVkceLsdh-VuO1tLJUZrU4zissz0l_IA/s320/35232_145941082086392_4162060_n.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तीन बज रहे हैं... सुबह हो रही है... एक ओर हलकी सी लाली छाई हुई है... दूसरी ओर चाँद भी पूर्ण वैभव के साथ खिला हुआ है...! इस मौसम में इस वक़्त जगे हुए हों, ऐसा हुए बहुत समय बीता... आज जाने क्यूँ नींद खुल गयी है और अब सोने की इच्छा नहीं है. गर्मियों में यहाँ रात अँधेरी होती ही नहीं... कुछ एक घंटे छोड़ दें तो समझो इन दिनों दिन ही दिन है स्टॉकहोम में. </div>
<div style="text-align: justify;">
अम्बर का नित परिवर्तित होता रंग... उसपर हो रही चित्रकारी... देखते हुए... खुशी और आंसू के बीच झूलते हुए... जगा जा सकता है कुछ एक रातें यूँ ही! बहुत समय तक नहीं बचेगा ये सब... अब मौसम बदलने ही वाला है... अगस्त की दस्तक के साथ छुट्टियाँ भी समाप्त और ये उजाले का मौसम भी तो धीरे धीरे लुप्त होने वाला ही है. फिर वही बर्फीली सुबहें... निराश निर्जन से समुद्री तट... और ढेर सारा अन्धकार. तब प्रतीत होता है जैसे प्रकृति सारे रंग छुपा कर श्वेत श्याम रंग के संयोजन से अपना चमत्कार रचने में निमग्न रहती है…!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
आज यह लिखते हुए कभी इसी मौसम में लिखी गयी एक कविता की पंक्तियाँ स्मरण हो आ रही हैं. पन्ने पलटे तो मिली <a href="http://www.anusheel.in/2012/06/blog-post_28.html" target="_blank">कविता</a> और छूट रहा कोई किनारा भी हाथ आया…! रहने वाला नहीं है कुछ भी यथावत… हर एक क्षण परिवर्तन की लहर से होकर नये क्षण में बदल रहा है… हर क्षण हम बदल रहे हैं… नष्ट हो रहे हैं… हमेशा नहीं रहने वाला सामर्थ्य ही… न हम ही… </div>
<div style="text-align: justify;">
इसलिए</div>
<div style="text-align: justify;">
कल के लिए ज़रूरी है,</div>
<div style="text-align: justify;">
आँखों में ही सही</div>
<div style="text-align: justify;">
आज कुछ रौशनी बसाई जाए!</div>
<div style="text-align: justify;">
आज</div>
<div style="text-align: justify;">
अनुकूल मौसम में,</div>
<div style="text-align: justify;">
कल के लिए</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ कलियाँ उगाई जाए!!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="text-align: justify;">आज लिख पा रहे हैं, लिख लें… कुछ एक '</span><a href="http://anupamapathak.blogspot.se/2012/03/blog-post_1743.html" style="text-align: justify;" target="_blank">कविताओं की कहानी</a><span style="text-align: justify;">' उतर आये पन्नों पर…! </span><span style="text-align: justify;">क्या पता पलक झपकते ही फिर कब लिखने का मौसम बीत जाए…! </span><span style="text-align: justify;">पंछी बोल रहे हैं… उनकी आवाज़ कहीं से आकर खिड़की पर बैठ गयी सी लगती है…! जीवन अपनी गति से चल रहा है…! रूठी कलम कुछ कुछ मान सी गयी है… कि कभी कभी ज़रूरी होता है शब्दों के लिए भी लिख जाना; बनना जो है उन्हें संबल… भविष्य में… किसी हताश पल के लिए, संजोना है उन्हें प्रकाश बीते कल का… आने वाले कल के लिए!</span></div>
<span style="text-align: justify;">*****</span><br />
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<span style="text-align: justify;">तस्वीर: पहले ही कभी की ली हुई है… अम्बर अभी भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है, हो सकता है कुछ एक रंग छूट गए हों तस्वीर में… पर है </span><span style="text-align: justify;">आज का अम्बर भी ऐसा ही इसलिए यही तस्वीर! आज की तस्वीर लगायें भी तो क्या हू-बहू उतर पायेगा अम्बर का वास्तविक स्वरुप तस्वीर में…? शायद नहीं! आखिर </span><span style="text-align: justify;">कहाँ संभव है दृश्य को उसकी समग्रता में कैद कर पा</span><span style="text-align: justify;">ना… ये कुछ मन की आँखों में ही बसाया जा सकता है, वहीँ संजोया जा सकता है… इन सामान्य सी प्रतीत होने वाली </span><span style="text-align: justify;">विशिष्ट अनुभूतियों को मन के धरातल पर ही जिया जा सकता है!</span></div>
</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-44822141505251257422013-07-23T15:19:00.002+02:002013-07-23T16:12:01.572+02:00कि सभी घूमते पहिये करते हैं मौत का प्रतिवाद! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFi14HV4JSyhVy5PwUq8m9bNvIR2uIOa5AFwPZK5QTYKggsp6W0tEyOZ7feaOjLWUflnKLGX3SGxy9P_DpHUQtrIZe0cbxy5VAcpIhgUuf903mDZidNBx7oiUFUjLzdi2lO3bfFWfTfgc/s1600/DSC_0305.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="211" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFi14HV4JSyhVy5PwUq8m9bNvIR2uIOa5AFwPZK5QTYKggsp6W0tEyOZ7feaOjLWUflnKLGX3SGxy9P_DpHUQtrIZe0cbxy5VAcpIhgUuf903mDZidNBx7oiUFUjLzdi2lO3bfFWfTfgc/s320/DSC_0305.JPG" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अनुवाद करना बेहद थका देने वाला काम है… एक दूसरी ही दुनिया से मानों भाव को अपनी भाषा में उतार ले आने की अप्रतिम कोशिश… और इस प्रयास में कितना कुछ टूटता रचता सा अपने भीतर ही. कविताओं में कितनी ही सूक्ष्म बातें कह जाता है कवि… उसकी चेतना जाने किस धरातल पर जाकर क्या क्या अनुभूतियों के चित्र खींच आती है… उन सभी बातों को अपने धरातल पर जीकर शब्द देना बड़ा दुष्कर कार्य है.<br />
पर ये कविता ही है, जो इस तरह उग आती है भीतर कि हर स्थूल सूक्ष्म दीवार को लांघ एक से दूसरी भाषा में रच-बस जाने के अपने हुनर को बार बार सिद्ध करती सी लगती है. सो, गुज़रना हो रहा है स्वीडिश कविताओं से और उनका अनुवाद करते हुए जी रहे हैं कितने ही एहसास अपनी भाषा के धरातल पर अपने आसमान के नीचे. कभी मन व्यथित हो जाता है कवि की अनुभूतियों को जीकर… तो कभी मन हो जाता है निराश जब नहीं मिलते उपयुक्त शब्द किसी भाव को अपनी भाषा में टटोल सकने के लिये… फिर कुछ देर चलता है बंद आँखों से देखना कुछ एक अनगढ़े शब्द और फिर वहीँ से प्रकट हो आते हल को… और बहुत बार एक अनूठी ख़ुशी से आह्लादित होता है मन किसी सार्वभौम सत्य के उद्घाटन पर… कोई जी गयी सच्चाई, अपना ही कोई विश्वास जब दिख जाता है किसी कविता में… फिर सारी थकान चली जाती है, एक अकथ संतुष्टि का भाव ढँक लेता है पूरे अस्तित्व को. </div>
<div style="text-align: justify;">
कभी लगता है कविता वो विधा है जो हो ही नहीं सकती अनूदित, एक भाषा से दूसरे तक की यात्रा में उसकी आत्मा कहीं छूट जाती है पीछे ही. फिर लगता है कविता ही वो एकमात्र विधा है जो सबसे अधिक करीने से हो सकती है अनूदित क्यूंकि कविता में भावों की सघनता को जी लेने पर जब वह किसी और रूप में होती है प्रस्फुटित तो भी उसकी आत्मा वही रहती है, बदलता है तो बस भाषारूपी शरीर ही. बिना भावों की सघनता के संभव नहीं है कविता और उस सघनता तक पहुँचने पर सृजन स्वयं प्रवाहित हो जाता है… अनूदित होने को सहर्ष तैयार कविता स्वयं हाथ पकड़ कर मदद करती है और मन बस साथ में बहता चला जाता है. आजकल यही सब कुछ जीने में खुद को उलझाये हुए हैं हम...</div>
<div style="text-align: justify;">
आज लिखते पढ़ते हुए <a href="http://svenskpoesianusheel.blogspot.se/2011/12/transtromer-och-poesi.html" target="_blank">ट्रांसट्रोमेर</a> की एक कविता "चार मनोदशाएँ" का अनुवाद कर रहे थे… कविता चौथी मनोदशा का वर्णन करते हुए कुछ यूँ विराम लेती है: </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रास्ता कभी ख़त्म नहीं होता. क्षितिज आगे की ओर दौड़ लगाता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
पंछी पेड़ पर संघर्षशील रहते हैं. धूल पहियों के चारों ओर चक्कर लगाती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
कि सभी घूमते पहिये करते हैं मौत का प्रतिवाद! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्वीडिश भाषा से हिंदी में उतरते ही मेरे लिए यह भाव एकदम स्पष्ट और स्वयं को सिद्ध करने हेतु प्रतिबद्ध सा प्रतीत होने लगा… मन को ढेर सारी सांत्वना देती हुई इन पंक्तियों को लिखने के बाद एकदम से चुप हो जाने का मन किया, कुछ बिलकुल अनमोल सा नज़र आने पर कुछ एक पल का विराम ले उस भाव को जी लेने की चाह ने किताब बंद करवा दी… अगली कविता की ओर बढ़ने नहीं दिया. इसी विराम में नीले अम्बर तले लिख रहे हैं हम कि खुद से बात करना एक चुप्पी के बाद ज़रूरी सा लगने लगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
मौत, कब्रगाह एवं इन अलौकिक रहस्यों पर कितनी ही बेहतरीन स्वीडिश कविताओं से अबतक गुज़र चुके हैं हम, कुछ का अनुवाद भी किया है… इंसान की उहापोह को रेखांकित करती, नीरव शांति का संगीत रचती <a href="http://svenskpoesianusheel.blogspot.se/2012/07/blog-post_05.html#comment-form" target="_blank">जीवन और मृत्यु के एकाकार हो जाने की कवितायेँ</a>… <a href="http://svenskpoesianusheel.blogspot.se/search?updated-min=2011-01-01T00:00:00%2B01:00&updated-max=2012-01-01T00:00:00%2B01:00&max-results=12" target="_blank">शाश्वत सत्य को आवाज़ देती कवितायेँ</a>…<a href="http://svenskpoesianusheel.blogspot.se/2012/07/blog-post_05.html#comment-form" target="_blank"> </a><a href="http://svenskpoesianusheel.blogspot.se/2012/03/blog-post_08.html" target="_blank">सार्वभौम कवितायेँ! </a></div>
<div style="text-align: justify;">
विस्मित हैं हम… कितनी सरलता से इन्ग्रिद काल्लेनबेक अपनी कविता में कह जाते हैं: </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मौत मात्र एक छोटा सा शब्द है</div>
<div style="text-align: justify;">
जिसका किया जा रहा है परिक्षण.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सच! कविता हो सकती है बहुत बड़ा संबल… हो सकती है वो जटिल सत्यों का सरल अन्वेषण. कोई जीए उन्हें, तो जाने! </div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
अभी कुछ एक दिन पहले ही यहाँ की एक कब्रगाह में जाना हुआ था… ६४ एकड़ में फैला विशाल क्षेत्र… स्मृतियों का विस्तृत कुञ्ज… हरियाली से खिला हुआ…, उस नीरवता को लिख जाने की चाह है कि वह शाम उतर गयी है भीतर तक. </div>
<div style="text-align: justify;">
लिखेंगे फिर कभी, अभी बस उस कब्रगाह की एक तस्वीर संलग्न… इस विराम में लिखे गए टुकड़े के साथ!<span style="color: #222222; font-family: Georgia, Utopia, Palatino Linotype, Palatino, serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><i></i></span></span></div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
और अंत में, ऐसी ही किसी कब्रगाह के बारे में निल्स फर्लिन की कविता से कुछ पंक्तियाँ:</div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
मृत सो रहे हैं, देख नहीं रहे हैं कुछ भी </div>
<div style="text-align: left;">
और न ही उन्हें कुछ अब जीवन की ओर फिर से करता है आकर्षित. </div>
<div style="text-align: left;">
उनके लिए ये क्षेत्र है एक आरामगाह और जीवितों के लिए </div>
<div style="text-align: left;">
एक कब्रगाह.<br />
*****<br />
चिरनिद्रा में लीन आत्माओं को जीवन का मौन प्रणाम… भावभीनी श्रद्धांजलि!<br />
इससे इतर और भला क्या अर्पित करे विकल मन…!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-56835658788786514052013-07-21T06:21:00.004+02:002013-07-21T11:29:00.582+02:00सभी को एक रोज़ स्मृति मात्र बनकर ही रह जाना है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi33Quhw0yvsN_o3v91rMUOItLs-mJ_neVBdSJzG2KL_B6t1lDen9VkNFmMvODnQjclc3T04W2EksGofEHl-Hmirrs1jYXEbM3GCdrgiSpphi1xiorAOdxUYdqFFWOFLzl1KNLU_hMRxIc/s1600/DSC_0001.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="211" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi33Quhw0yvsN_o3v91rMUOItLs-mJ_neVBdSJzG2KL_B6t1lDen9VkNFmMvODnQjclc3T04W2EksGofEHl-Hmirrs1jYXEbM3GCdrgiSpphi1xiorAOdxUYdqFFWOFLzl1KNLU_hMRxIc/s320/DSC_0001.JPG" width="320" /></a></div>
जलते जलते बुझ जाती है बाती... उड़ जाते हैं प्राण पखेरु… पर स्मृतियों की लौ बन कर टिमटिमाते रहते हैं... सदा के लिए चले जाने वाले, यहीं कहीं...<br />
*****<br />
बादलों के पीछे छुपा सूरज सुनहरे रंग घोल रहा है… संसार रंगने की तैयारियां चल रहीं हैं उसकी... कूचियाँ मिल नहीं रहीं होंगी शायद इसलिए प्रकट नहीं हो रहा है पूर्णरूपेण... पर दिख जा रहा है छिपा हुआ बादलों के पीछे... </div>
<div style="text-align: justify;">
लगता है, कूचियाँ मिल गयीं उसे या फिर रंगों की प्याली ही उड़ेल दी उसने स्वयं को आच्छादित किये बादल पर? कौन जाने! बाल अरुण ये सारी लीलाएं कर के निकल ही आएगा बादलों के समुद्र से, धारण कर प्रचंड स्वरुप धरती के कण कण में समा जायेगा…<br />
प्रात पहर के ये कुछ एक क्षण बीतते ही भला कौन मिला पायेगा उससे आँखें...!</div>
<div style="text-align: justify;">
देख रहे हैं, इन कुछ एक पंक्तियों के यहाँ उतरने में जो वक़्त लगा उतने में निकल आया है वो बादलों से... अपने सारे ताम झाम के साथ, रंग कूचियाँ सब साथ लिए, अब तक तो उसने बहुत कुछ रंग भी दिया है… यहाँ तक की एक टुकड़ा किरण का मेरे कमरे में भी प्रवेश कर कुछ कलाकारियाँ कर रहा है… </div>
<div style="text-align: justify;">
चाहे कितना भी जतन कर ले वह, उदासियों में रंग भरना इतना सरल भी नहीं! मृत्यु की नीरवता... किसी का चले जाना... पीछे छूट गए लोगों का रोना बिलखना... इस सबसे परीचित है किरण भी… आखिर रोज़ जीती है वह अवसान के दर्द को... रोज़ डूबता जो है सूरज! ये और बात है कि यहाँ डूबा तो कहीं और दिन का आगाज़ हो रहा होता है... यहाँ अनुपस्थित होता है जब, तब वह पूर्ण वैभव के साथ कहीं और उदित हो रहा होता है… वस्तुतः वह कभी मिटता नहीं है… बस अदृश्य हो जाता है अगली सुबह तक के लिये. हम इंसान भी शायद शरीर त्यागने के बाद अदृश्य हो जाते हैं बस, मिटते नहीं... इधर शरीर चिरनिद्रा में लीन हुआ और उधर कहीं आत्मा यादों का रूप धर हृदय की दुनिया में जाग उठती है… चले जाना मात्र अदृश्य हो जाना ही है… सूरज की तरह एक जगह डूब जाने का अभिनय कर कहीं और उगना! </div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान कहते हैं-</div>
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अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।</div>
<div style="text-align: justify;">
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।</div>
<div style="text-align: justify;">
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना? </div>
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*****</div>
<div style="text-align: justify;">
कल सुबह का सूरज जब वहाँ दूर उगा होगा, तब देखा होगा उसने वह सब... अचानक फूफा जी का आँखें मूंदना... उनका चुपके से आई मौत का वरण करना... उसके बाद का हृदयविदारक दृश्य, सब वैसे ही चिन्हित कर गया जब कुछ घंटों बाद उसका यहाँ सुदूर स्टॉकहोम आना हुआ... </div>
<div style="text-align: justify;">
आज जब सूरज पुनः वहाँ उगा होगा तो पोंछे होंगे न उसने बुआ के आंसू, उनके अन्दर एक शक्ति रोप आया होगा न जिससे वो इस असह्य दुःख की घड़ी में खुद को संभाल सकें... गीता के श्लोक उच्चरित कर आया होगा न उसी तरह जिस तरह फूफा जी स्वर में गाते थे...<br />
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
कमरे में कलाकारी कर रही किरण अब जा चुकी है… मेरा मन भी कहीं दूर है... </div>
<div style="text-align: justify;">
जिस तरह सरल हृदयी फूफा जी वो मीठा भजन गाते थे उसी तरह लहरा रहा है वह स्वर कहीं हवाओं में... जिसे केवल हम सुन पा रहे हैं, इस जहान से वे चले गए पर कहीं तो हैं... वहीँ से आवाज़ आ रही हो...</div>
<div style="text-align: justify;">
..................................<br />
सबसे ऊंची प्रेम सगाई</div>
<div style="text-align: justify;">
दुर्योधन के मेवा त्याग्यो, साग विदुर घर खाई।</div>
<div style="text-align: justify;">
जूठे फल शबरी के खाये, बहु विधि स्वाद बताई।</div>
<div style="text-align: justify;">
राजसूय यज्ञ युधिष्ठिर कीन्हा, तामे जूठ उठाई।</div>
<div style="text-align: justify;">
प्रेम के बस पारथ रथ हांक्यो, भूल गये ठकुराई।</div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसी प्रीत बढ़ी वृन्दावन, गोपियन नाच नचाई।</div>
<div style="text-align: justify;">
प्रेम के बस नृप सेवा कीन्हीं, आप बने हरि नाई।</div>
<div style="text-align: justify;">
सूर क्रूर एहि लायक नाहीं, केहि लगो करहुं बड़ाई।<br />
सबसे ऊंची.......<br />
*****<br />
बहते आंसू हैं और है पसरा हुआ मौन... इसी के साथ मेरी कल्पना में सच्चिदानंद प्रभु के समीप बैठे आप भजन कीर्तन में मग्न दिख रहे हो फूफा जी, बस बुआ के क्रंदन से द्रवित हो गला रूंधा हुआ है आपका...<br />
ॐ!</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-43726305660048568122013-07-10T14:39:00.000+02:002013-07-10T14:54:44.102+02:00एक ऐसी खिड़की!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnNTXq-OttoS5sqN-i5HoWnUzKuj0tCh8BA7Us1CK57-Oo5DENajw2hez_hdo9m6IDb6jp4Q-2ruqUljltIUUj2MUaxua9-bNJxZdPzgvA-J7SOl2zbyzntZwsV-Nez8nsHYMDta80iF8/s1600/IMG_0401.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnNTXq-OttoS5sqN-i5HoWnUzKuj0tCh8BA7Us1CK57-Oo5DENajw2hez_hdo9m6IDb6jp4Q-2ruqUljltIUUj2MUaxua9-bNJxZdPzgvA-J7SOl2zbyzntZwsV-Nez8nsHYMDta80iF8/s320/IMG_0401.JPG" width="240" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कहीं कुछ भी नहीं... न आहटें, न आवाज़ें... बस एक खिड़की और खिड़की पर पड़ी बारिश की बूँदें... बादलों से पटा अम्बर, दूर दूर तक ख़ामोशी और ख़ामोशी में सुनायी पड़ती बरसती बूंदों की अनमनी दस्तक। कई दिनों बाद ऐसे फुर्सत के क्षण हैं, ऐसी बारिश है और खिड़की पर बैठा मन है…</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
लिखने के भी मौसम होते हैं, अपना बहुत सारा साथ चाहिए होता है, कहीं अन्दर पैठना पड़ता है, कुछ भीतरी बाहरी बातों की डोर आपस में टकराती है और उनमें कहीं कोई सामंजस्य की सम्भावना बनती है तब घटित होता है लेखन…</div>
<div style="text-align: justify;">
***</div>
<div style="text-align: justify;">
बस कांच पर पड़ी बूंदों को देख रहे हैं, कुछ सोच रहे हैं और बहुत दिनों बाद नीले अम्बर पर कुछ लिख रहे हैं... कुछ एक ऐसे क्षणों को याद रह जाना चाहिए न। कैमरा जैसे किसी क्षण को तस्वीरों में कैद कर लेता है वैसे ही शब्दों में भी पलों को संजो लेने की अपार क्षमता होती है… शायद तस्वीरों से कहीं अधिक। तभी तो आज अपने ही लिखे पुराने शब्दों को पढ़ कर कितनी ही बातें, कितनी ही मनः स्थितियां जीवंत हो उठीं। लिख दे रहे हैं यह बात यहाँ पर… पढ़ेगा, तो नीला अम्बर आश्वस्त होगा, कि हम उसे भूले नहीं हैं, बस उलझे रहे सो आना नहीं हुआ इधर। वैसे वो तो पहले से ही जानता है... उसे कोई शिकायत भी नहीं है! </div>
<div style="text-align: justify;">
काश! सारे रिश्ते भी ऐसे होते, ज़िन्दगी भी ऐसी ही होती, कोई सवाल जवाब नहीं होते, चुपके से आया जाया जा सकता, जब चाहते अवकाश ले लेते, जब मन होता आ जाते काम पर वापस...</div>
<div style="text-align: justify;">
पर, जो जैसा है अच्छा है... ज़िन्दगी जैसी है अच्छी है… जैसी नज़र आती है उससे कहीं अधिक रहस्यमयी मगर फिर भी अच्छी...! वह एक ऐसी खिड़की है जो अनंत की ओर खुलती है, ये हम पर है कि झांकें उसके पार और जो चाहें थाह लें... दिव्य से दिव्यतम मोड़ हैं... जो चाहें वो राह लें!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-33293269464340369512012-06-27T15:36:00.002+02:002013-07-10T14:41:48.265+02:00ज़िन्दा होने का प्रमाण!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEickEr3XA4pzePH6ZAA14TsTLm0FQr6swi6eWEwUYvI35buLoGqYZzpsVWs97sn2DIgSDEZK2MQ-z4eXzriMbzv1wP7XQdpukDptimTxG51Jr5bQlzVvzscXH7Br03mLLUzaBlp9wMt3EQ/s1600/IMG_0057.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEickEr3XA4pzePH6ZAA14TsTLm0FQr6swi6eWEwUYvI35buLoGqYZzpsVWs97sn2DIgSDEZK2MQ-z4eXzriMbzv1wP7XQdpukDptimTxG51Jr5bQlzVvzscXH7Br03mLLUzaBlp9wMt3EQ/s320/IMG_0057.JPG" width="320" /></a></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
कई क़िताबें ले आती हूँ, पर उनमे से कई पढ़ नहीं पाती... समय का अभाव, व्यस्तता और पाठ्य पुस्तकों से अवकाश ले कर ही मुड़ा जा सकता है इनकी ओर...! </div>
<div style="text-align: justify;">
दो दिन पूर्व लाइब्रेरी से यह (Please look after mother/Kyung-Sook Shin) पुस्तक लायी और आरम्भ किया तो पढ़ भी गयी कुछ घंटों में...; यह एक कोरियन उपन्यास है... कहानी एक माँ के इर्द गिर्द घूमती है, उसका जीवन, उसकी त्याग तपस्या, उसकी अहमियत सब एक दिन उसके खो जाने के बाद रेखंकित होते हैं परिवार के सदस्यों की यादों में..., वह अपने पति और पांच बच्चों के जीवन का अहम हिस्सा रही पर कोई उसे उसके रहते समझ नहीं पाया... एक दिन स्टेशन पर उसका खो जाना और उसे ढूँढने के लिए किये गए असफल उपक्रमों के बीच बढ़ती हुई कहानी सभी परिवारजनों को खालीपन से भर जाती है; अपनी कृतघ्नता का अहसास प्रबलता से महसूस करते हैं सभी. उनकी स्मृतियों से बनती जाती है माँ की तस्वीर, उसके रहते उसके बारे में जो नहीं सोचा समझा वह सब सोचने, समझने, करने को उत्कट हैं सभी पर माँ है कि खो चुकी है...! पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे यह सांकेतिक रूप से हर माँ की कथा है..., अनचीन्हा ही रह जाता है उसका अस्तित्व; वह इस तरह प्रस्तुत रहती है हमारे लिए कि उसके होने की महत्ता हम आजीवन नहीं जान पाते...! </div>
<div style="text-align: justify;">
माँ ही क्यूँ, ये तो स्वभावतः हर तत्व, हर रिश्ते के साथ होता है... हम जीवन को भी तो बस काटते चले जाते हैं, जीने के महत्त्व से अनभिज्ञ; जब खोने को होता है सबकुछ तब एहसास होता है कि यूँ ही गँवा दिया जिसे, वह जीवन कितना अनमोल था, कितना सुगढ़ सुन्दर हो सकता था हमारी ज़रा सी पहल से! </div>
<div style="text-align: justify;">
खो देने पर ही क्यूँ एहसास हो किसी के महत्त्व का... चाहे वह समय हो, रिश्ते हों या व्यक्ति विशेष हो...? कितना कुछ है जिसके लिए प्रतिपल हमें आभारी होना चाहिए, मात्र वाणी से ही नहीं, अपनी संवेदनशीलता और अपने कर्मों से भी... इस बात का आभास रहेगा तो व्यक्त भी होगा, व्यस्त जीवन की कुछ घड़ियाँ अनायास समर्पित भी होंगी... प्रकृति को, समाज को, परिवार को और यही घड़ियाँ जीवन का असल हासिल होंगी!</div>
<div style="text-align: justify;">
समय रहते मूल्य पहचानना सीखें हम, तभी मिल सकेगा हमारे ज़िन्दा होने का प्रमाण!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-71920269768081778042012-06-04T09:52:00.011+02:002013-07-10T14:43:16.209+02:00बहती धारा की तरह!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwFVAun4NByQfUnXu_nIIwSEoBHFlA1h5cocdItgp8PT3vTc1OdnkPYC5koxTFxUH8WHHAV56_kuqV4wLQwcc243uxUf5tz_DEHgpu9-HlqZY2_TRKy7fSk9uMwPxxHLTIefF-R5rwqUQ/s1600/IMG_1611.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5750088624592516290" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwFVAun4NByQfUnXu_nIIwSEoBHFlA1h5cocdItgp8PT3vTc1OdnkPYC5koxTFxUH8WHHAV56_kuqV4wLQwcc243uxUf5tz_DEHgpu9-HlqZY2_TRKy7fSk9uMwPxxHLTIefF-R5rwqUQ/s320/IMG_1611.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
लिखते ही रचनात्मक सुख मिल जाता है, लिखने का कोई और अन्य उद्देश्य भी हो सकता है, इसका ज्ञान नहीं हमें या शायद कोई अन्य उद्देश्य हो भी नहीं सकता... क्यूंकि लिखना तो एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है... किसी सुन्दर दृश्य को देखने की तरह... हाँ, देखने के बाद विचार प्रस्फुटित होते हैं, मन अच्छा अनुभव करता है; वैसे ही लेखन के बाद शब्द अपना चमत्कार शुरू करते हैं...! बड़े बड़े परिवर्तन की आधारशिलायें भी तो यूँ ही रची गयीं होंगी... शब्दों से क्रांति आई होगी, किसी करुण संवाद ने रुलाया होगा, कोई कोमल अभिव्यक्ति किसी का दर्द सहला गयी होगी...! </div>
<div style="text-align: justify;">
रचे जाने के बाद शब्द अपना उद्देश्य स्वयं ढूंढ लेते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता अलग से...</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
होना चाहिए सहज, बहती धारा की तरह, शेष सब होता जाता है!</div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
अपने आप से संवाद करते हुए लिखी थी ये बातें कभी... इसी संवाद का विस्तार बनी <a href="http://www.anusheel.in/2012/05/blog-post_2704.html" style="color: #000099;">यह कविता</a>...! कुछ उत्तर स्वयं को ही देने होते हैं, कुछ प्रश्नचिन्हों के हल ढूँढ़ना हमारे अपने लिए आवश्यक हो जाता है कभी कभी...; ऐसे ही विचार प्रवाह में लेखनी ने स्वयं खोजा जवाब मेरे लिए... और कविता बोली:</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://www.anusheel.in/2012/05/blog-post_2704.html" style="color: #3333ff;">चुप सी कलम की स्याही जांचने के लिए</a></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://www.anusheel.in/2012/05/blog-post_2704.html" style="color: #3333ff;">लिखते हैं हम...</a></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://www.anusheel.in/2012/05/blog-post_2704.html" style="color: #3333ff;"></a><a href="http://www.anusheel.in/2012/05/blog-post_2704.html" style="color: #3333ff;">अपने ही भीतर झांकने के लिए!</a></div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-2330168441030836732012-05-30T10:06:00.006+02:002013-07-10T14:43:38.721+02:00ये लौटना कितना सुखद होगा न!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOqFQtXGPKK3gffrlZ849RW95U60WcTqteaNZUgm1mGqRd4hmGQcMZSKblqV4S36NuPVP3cWwUWdtERBsWjdI58Fz92gAMuk7NzOLQrJ7GXURjtnUX9qY6PDrGB3WrG1e7150qFL29qo8/s1600/IMG_3815.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5748241980065367362" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOqFQtXGPKK3gffrlZ849RW95U60WcTqteaNZUgm1mGqRd4hmGQcMZSKblqV4S36NuPVP3cWwUWdtERBsWjdI58Fz92gAMuk7NzOLQrJ7GXURjtnUX9qY6PDrGB3WrG1e7150qFL29qo8/s320/IMG_3815.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
<div style="text-align: justify;">
वो बचपन की यादों में छूट गयी थी पर यहाँ स्टॉक होम आकर उससे जैसे एक नयी पहचान हो गयी... अब पेंसिल उसी तरह मेरे साथ है जैसे उन दिनों हुआ करती होगी जब लिखना शुरू किया होगा.</div>
<div style="text-align: justify;">
थर्ड स्टैंडर्ड तक पेंसिल से लिखने के बाद फाउनटेन पेन पकड़ने की ख़ुशी याद है... कलम में स्याही भरना मानों जीवन में उमंग भरने सा था उन दिनों... कलम पकड़ने का एहसास बड़े हो जाने का एहसास था... तब हमारे स्कूल में डॉट पेन से लिखना वर्जित था हमारे लिए, तीन चार साल इंक पेन से लिखने के बाद ही डॉट पेन से लिखने की अनुमति मिलती थी... ये एक नियम सा था; कहते हैं, इंक पेन से लिखने पर लिखावट अच्छी बनती है और एक बार अभ्यास हो जाए तब डॉट पेन से लिखना शुरू किया जा सकता है... यही कुछ उद्देश्य रहा होगा! जीवन का फलसफा भी तो कुछ ऐसा ही है, पहले लड़खड़ाते हुए चलना सीख लो फिर तो दौड़ने को लम्बी राह है... शुरू शुरू में इंक पेन से लिखना भी तो लड़खड़ाने जैसा ही था... कभी इंक लिक कर जाती थी, कभी लिखने का सलीका न होने के कारण निब से कागज़ ही फट जाते थे, फिर धीरे धीरे सब सामान्य हो गया... वैसे ही जैसे अब गिरने के बाद संभल जाना ज़िन्दगी सीखा देती है!</div>
<div style="text-align: justify;">
अब ठीक ठीक याद नहीं कि कब इंक पेन से डॉट पेन पर आये, संभवतः सेवेंथ या ऐट्थ स्टैंडर्ड रहा होगा...; और फिर उसके बाद फाउनटेन पेन धीरे धीरे दूर होता गया, डॉट पेन की गति साथ हो गयी...! बस कभी कभी शौक से लिखने के लिए फाउनटेन पेन साथ रहा, कई रंगों की स्याही से परिपूर्ण...; इम्तहानों की भागमभाग में डॉट पेन ने हमेशा साथ निभाया... लम्बा सफ़र तय किया इसके साथ... बहुत सारी कलम संभाल कर रखी है, कई यादें हैं उनके साथ जुडी हुईं...!</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर समय बीता, वक़्त ने करवट ली और पहुँच गए अपने देश से इतनी दूर... यहाँ पढ़ाई शुरू की तो देखा कि सामान्यतः सभी पेंसिल से ही लिखते हैं... शिक्षक भी, विद्यार्थी भी...! शुरू शुरू में अटपटा लगता था... पर अब दो वर्षों में सारा लिखना पढ़ना इस तरह हुआ पेंसिल से कि अब लगता है कलम से लिखा ही नहीं हो कभी...; पेंसिल से लिखने का अपना ही मज़ा है, कितना आसान है हर गलती को इरेज़ कर देना पेंसिल से लिखते हुए...! मेरे पास कई तरह की पेंसिल है अब... जैसे कभी कई तरह की कलम हुआ करती थी.</div>
<div style="text-align: justify;">
पेंसिल की बात करते हुए लौटने की बात से जुड़ी कई भावनाएं उमड़ घुमड़ रही हैं... देख रहे हैं कि एक बादल है जो लौट रहा है वापस समुद्र में, लहरें भी फिर फिर लौट रही हैं सागर में, ये सामान्य रूप से चल रहा है... चलता है, फिर क्यूँ नहीं लौट पाते हम? आगे की राह क्यूँ यूँ उलझाये रखती है कि हम उस पुल के उपकार को अक्सर भूल जाते हैं जिसे पार कर आगे आये हैं...!</div>
<div style="text-align: justify;">
वापस लौटना मुमकिन नहीं होता... जीवन आगे जो भागता रहता है, पर यही जीवन कभी कभी कुछ खोयी हुई चीज़ें लौटा भी देता है..., खोये हुए पल, खोयी हुई खुशियाँ, खोयी हुई जडें, खोया हुआ सुकून, खो चूका भोलापन, और कभी-कभी खो चुकी यादें भी! जीवन है न... जाने क्या क्या आश्चर्य छुपाये है हर पल अपने भीतर...! गुल्लक में जमा हो रही उम्मीदों का पूरा पूरा हिसाब देती है ज़िन्दगी... कहाँ का बिछड़ा हुआ कोई कहाँ कैसे मिल जाएगा ये तो अज्ञात है... जब तक घटित न हो तब तक असंभव सा ही जान पड़ता है... पर ज़िन्दगी ही कहती है न कि असंभव कुछ भी नहीं...!</div>
<div style="text-align: justify;">
अपने छोटे से वृत्त में हर आश्चर्य, हर सम्भावना, हर मिठास को साथ लेकर चलता है जीवन...., समय और स्थिति के अनुरूप प्रकट हो चकित कर देती है पूर्ण सौन्दर्य के साथ काँटों के बीच खिली एक कली...!</div>
<div style="text-align: justify;">
पेंसिल का लौटना सुखद है... यूँ ही कभी हम सबका भी लौटना हो वहाँ, जहां से हम हो कर आ चुके हैं कोई एक बीज रोप कर, जिससे लौट कर देख सकें बीज का सुखद अंकुरण...! ये लौटना कितना सुखद होगा... नयी उर्जा से परिपूर्ण कर देगा फिर आने वाली राह में हम दुगुने उत्साह के साथ शुभ संकल्पों के बीज बोते हुए बढ़ेंगे और इस तरह एक दिन धरती स्वर्ग सी हो जायेगी... हरियाली की चादर ओढ़ कर गाएगी... उन दिनों में लौट जायेगी जब उसने नया नया जन्म लिया होगा, बेहद सुन्दर और सहज रही होगी... ये लौटना कितना सुखद होगा न धरती के लिए... हमारे लिए... हम सबके लिए!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-26491719761943705732012-04-16T10:44:00.011+02:002013-07-10T14:44:07.337+02:00यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZtuh9Q95WNQRClbH3P0YQqWSLwF8KMUi7CM9uuYvH37oBnD6Mt553v_Usty7MmM1Irj3bs_z2rDmlUtbO_r1T8Lbqp8He-22J-fapetRO2JN8gEjqz6LTWBEYoftB00MmGgCvlN2LkUY/s1600/IMG_9676.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5731918104736686546" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZtuh9Q95WNQRClbH3P0YQqWSLwF8KMUi7CM9uuYvH37oBnD6Mt553v_Usty7MmM1Irj3bs_z2rDmlUtbO_r1T8Lbqp8He-22J-fapetRO2JN8gEjqz6LTWBEYoftB00MmGgCvlN2LkUY/s320/IMG_9676.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
<div style="text-align: justify;">
छुट्टी है तो क्या... घर पर नहीं बैठना हमें... यूँ ही इधर उधर भटकता रहे मन... उलझे रहे अकेले-अकेले दिन भर, उससे अच्छा है चलो ट्रेन से एक अच्छी भली यात्रा पर... किताब ले लेते हैं, कुछ पढ़ाई भी हो जायेगी और घर (भारत) भले नहीं जाना है अभी... तो क्या हुआ? अर्लांडा एअरपोर्ट के दर्शन ही कर आते हैं... यही सब सोच कर निकले थे उस दिन घर से.</div>
<div style="text-align: justify;">
अच्छा ही किया..., ट्रेन चल रही थी और हम स्थिर थे तो कुछ पन्ने पढ़ डाले... कुछ कुछ निश्चिंत भी हुए कि डेड लाईन से पहले ठीक ठीक समाप्त कर लेंगे ये असाइंमेंट...! ट्रेन चल रही थी... हमेशा तो बीच में ही गंतव्य आ जाता था... इसलिए इतनी दूरी तक आने का कभी अवसर हुआ नहीं... शायद स्टॉक होम उतरने के बाद अर्लांडा एअरपोर्ट से हुडिंगे तक आये थे तभी इस राह को देखा होगा २००९ अगस्त में फिर कहाँ इधर आना हुआ... अब तो उस दिन निकले ही थे अंतिम स्टेशन तक जाने की खातिर सो कोई हड़बड़ी नहीं थी... अंतिम स्टेशन तक जाना है इसलिए एक निश्चिन्तता सी थी...</div>
<div style="text-align: justify;">
दृश्य बदल रहे थे... रूकती थी और पल में पड़ावों को पीछे छोड़ बढ़ जाती थी ट्रेन! पन्ने पलटते हुए किताब के दृश्य भी परिवर्तित हो रहे थे... उपन्यास का मुख्यपात्र जीवन के अंतिम पलों में खिड़की से झांकता हुआ अपने जीवन का आकलन कर रहा है... पचास सालों के बाद अपने देश की धरती पर लौट कर अपने मृत भाई से जुदा हो कर भी कभी न जुदा हुए सामीप्य का अनुभव करता है... अपने पूरे जीवन पर सरसराती उसकी निगाहें सोच में डूबी हैं कि इतने वर्षों जीकर क्या उसने कुछ अलग कर लिया जो किशोरवय में मृत्यु की गोद में समा जाने वाला उसका एकलौता बड़ा भाई नहीं कर सका... वह सालों बाद अपने देश स्वीडन लौटा है... दृश्य बदल चुके हैं, कोई उसे नहीं पहचानता... किसी को उसका मृत बड़ा भाई भी याद नहीं है...!</div>
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अभी भी काफी पन्ने शेष हैं <span style="font-style: italic;">विल्हेल्म</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">मोबेरी</span> द्वारा लिखित नोवेल <span style="font-style: italic;">'Din stund på jorden'</span> के (<span style="font-style: italic;">धरती</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">पर</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">तुम्हारा</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">समयकाल</span>). आशा है ऐसी ही एक दो और निरुद्देश्य यात्राओं में ये किताब पढ़ लेंगे हम! इस किताब की बात फिर कभी...</div>
<div style="text-align: justify;">
अब दृश्य कुछ अलग से थे बाहर... शहर से दूर... निर्जन लेकिन बहुत सुन्दर भी..., सोचने लगे कि भारत जाने के लिए जब अर्लांडा एअरपोर्ट तक की यात्रा करेंगे हम तो कितना अच्छा लगेगा... लेकिन फिर इस कल्पना से मन को खींच लिया...! अभी जब जाना नहीं है तो इतना कुछ सोच कर मन को कष्ट देना ठीक नहीं...</div>
<div style="text-align: justify;">
अब मन शून्य आकाश की तरफ देख रहा था... कुछ कवितायेँ भीतर बह रही थीं... कुछ एक भीतर बहती बूँदें आँखों तक आयीं तो एक कविता जैसा कुछ स्वमेव लिख गया बुकमार्क की तरह इस्तमाल किये जा रहे कागज़ के टुकड़े पर... अनायास इस बेमतलब की यात्रा का हासिल बन गयी <a href="http://www.anusheel.in/2012/04/blog-post_4853.html" style="color: #000099;">कविता</a>!</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://www.anusheel.in/2012/04/blog-post_4853.html" style="color: #000066; font-weight: bold;">उस कविता</a> को <a href="http://www.anusheel.in/" style="color: #000099;">अनुशील</a> पर लिख दिया... अब कागज़ के टुकड़े पर से तो खो ही जाता न वो... और खो जाती ये कहानी भी मन के किसी अँधेरे से कोने में इसलिए लिख दी यह कहानी भी यहाँ...!</div>
<div style="text-align: justify;">
अभी कुछ एक रोज़ पहले <a href="http://anupamapathak.blogspot.se/2012/03/blog-post_1743.html#comments" style="color: #000099;">कविताओं की कहानी</a> लिखने की बात कही थी... व्यस्तताओं ने अवसर ही नहीं दिया... तो आज इसी कड़ी की शुरुवात मान लें एक निरुद्देश्य यात्रा का हासिल कविता और उसकी छोटी सी कहानी को...!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही... कहीं न पहुंचना हो फिर भी चलना चाहिए, जाने कहाँ विलक्षण दृश्य... और अनमोल क्षण हमारा इंतज़ार कर रहे हों...!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-49512810126015609062012-04-16T09:02:00.003+02:002013-10-19T06:44:11.022+02:00फिर सब अच्छा ही होगा!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzBQ11rxduN29cOBlcfDRjlVF09tXuUEznKeYY3l5zQG6vGb9TxKjmSEMpHt9GkNVCXfQHMSHfCP1lsNXbeSAOr6rbD15sXtaSr1PY0EsDXwIoRaaW5WqroZNrZx-rO3B6Pj9c6EY5ikE/s1600/IMG_1567.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5731895689787559138" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzBQ11rxduN29cOBlcfDRjlVF09tXuUEznKeYY3l5zQG6vGb9TxKjmSEMpHt9GkNVCXfQHMSHfCP1lsNXbeSAOr6rbD15sXtaSr1PY0EsDXwIoRaaW5WqroZNrZx-rO3B6Pj9c6EY5ikE/s320/IMG_1567.JPG" style="cursor: pointer; display: block; height: 333px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 366px;" /></a><br />
<div style="text-align: justify;">
श्वेत श्याम तस्वीर लिए सुबह खड़ी थी... पूरब दिशा में कोई लाली नहीं, कहीं पर नीले रंग की सुषमा नहीं... आकाश काला पड़ा था और धरती सफ़ेद... बर्फ़ से पटी हुई. हवाओं में लहराते बर्फ़ के फाहों को अपने दामन में समेट जैसे ठूंठ पेड़ अपने श्रृंगार का सामान जुटा रहे थे... और गर्मी का मौसम आते आते जैसे राहों में ठिठक गया था कहीं और...! दृश्य बदलते देर नहीं लगती... अब रात ही को तो नीले अम्बर पर चाँद खिला था, सुबह चाँद को तो चले ही जाना था पर नीला अम्बर भी अपना रूप परिवर्तित किये था... मानों चन्द्र वियोग में काला पड़ गया हो और धरा को भी जिद्द वश हरेपन की और बढ़ने से रोक रहा हो, बरस बरस कर एक उजली चादर मानों डाल दी पृथ्वी पर और श्वेत श्याम करके सबकुछ निश्चिंत बैठ गया हो... भला क्या बैर है रंगों से गगन को!!!</div>
<div style="text-align: justify;">
उदास होता है जब मन तो रंग, रंग नहीं दीखते... सब विदा हो जाता है आँखों के वृत्त से; अब आसमान उदास होगा तो ऐसा ही कुछ होगा न... उसके वृत्त में रंगों का प्रवेश निषेध हुआ तो धरा को रंग कहाँ से मिलेंगे...? अद्भुत दृश्य सृजित करने वाली बर्फ़ के फाहों की बारिश एक समय के बाद मातमी भी लगती है...! असमय ऐसा क्यूँ....?.... ये तो अप्रैल का महिना है... हरे रंग के विस्तार को देखने को आतुर हैं नयन... रंग बिरंगे फूलों के अवतरित होने की घड़ी है... ऐसे में अपनी सारी दिव्यता के साथ भी आएगी तो प्रभावित नहीं कर पाएगी बर्फ़ीली बारिश...! मखमली घास को छू कर लौटा मन उनके बर्फ़ से आच्छादित होने की कल्पना कर ही सिहर उठता है...</div>
<div style="text-align: justify;">
ये तो है हमारा सोचना विचारना हुआ... अब प्रकृति के खेल तो उतने ही निराले हैं... कौन जाने वो क्या सोचती है? कल और आज की सुबह लगता है मानों दो भिन्न मौसम की सुबहें हों... कल था अँधेरा, बर्फ़ ऐसे पड़ रही थी जैसे दिसंबर-जनवरी का महिना हो और अभी यूँ धूप खिली है मानों वो श्वेत श्याम सुबह महीनों पूर्व की बात हो... पेड़ खुश हैं... खिड़कियाँ धूप के आने को राह बना रही हैं और धूप में नाचती किरणें उछलती कूदती कह रही है- 'जाओ देख आओ मखमली घास को... रंग और न निखर आया हो तो कहना!'</div>
<div style="text-align: justify;">
वाह री धूप! हम लिख रहे हैं तो साथ साथ तुम पढ़ती भी जा रही हो क्या मेरे मन को...? चलो अच्छा है खिली रहो आज दिन भर, आज वैसे भी बहुत काम है तुम्हें... धरती के नम हिस्सों को ठिठुरन से बचाना है तुम्हें... पोर पोर में समा कर नमीं सोखनी है तुम्हें..., कोर नम रह जाएँ तो रहने देना... धरा की आँखों में खुशियों की धूप भरना हमारा काम है... मिलजुल कर लेंगे हम इस दायित्व का निर्वहन... तुम पेड़ों को जीवन देना, हम मिलजुल कर संवेदनाओं को जीवन देंगे, सौहार्द प्रेम के बीज अंकुरित होंगे... धरा स्वर्ग थी, स्वर्ग है और स्वर्ग ही रहेगी...!</div>
<div style="text-align: justify;">
बस देखते रहना... बने रहना और माहौल बनाये रखना... निराश हो जाते हैं हम... इंसान जो हैं...; हे धूप! तुम्हारी तरह खिल कर मुस्कुराहट बिखेरने में दक्ष नहीं हैं हम... तुम्हें लगे रहना है... हमें प्रेरित करते रहना है... लोगों की भीड़ में इंसान तलाशते रहना है... कुछ एक भी मिल गए...फिर क्या, फिर सब अच्छा ही होगा!!!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-86809449786453992732012-03-28T11:16:00.009+02:002013-07-10T14:44:46.955+02:00समय की दास्तान और कविताओं की कहानी!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtPzXNdx5sxWeqIJcQwwmCU4pmsbxf3vTjOV7WQwss_1g4otW5vnSOnssh6HJYdP0pvj3aRH8zGSTQ9WTWPKvMN7rVcv2UA0wN8Gi_wic-A_UCb3RYo2jbafoP64Db4Z-7EL0Rw3tc7Jo/s1600/IMG_1248.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5724893637132444322" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtPzXNdx5sxWeqIJcQwwmCU4pmsbxf3vTjOV7WQwss_1g4otW5vnSOnssh6HJYdP0pvj3aRH8zGSTQ9WTWPKvMN7rVcv2UA0wN8Gi_wic-A_UCb3RYo2jbafoP64Db4Z-7EL0Rw3tc7Jo/s320/IMG_1248.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
<div style="text-align: justify;">
हर कविता की एक कहानी होती है... कई बार समझ से परे... अवचेतन मन की किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए लिखी गयी या फिर किसी ऐसे विम्ब को जीवित करने हेतु लिखी गयी जो समय की धारा में खो जाने वाला है एक निहित प्रक्रिया के तहत; अब ये विम्ब किसी एक क्षण का भी हो सकता है... किसी व्यक्ति का या फिर समूह का या फिर चेतना के धरातल पर उगने वाली प्राकृत कलियों का!</div>
<div style="text-align: justify;">
हम भी कवितायेँ लिखते रहे हैं... यूँ ही अनायास... शिल्प के लिहाज़ से कमज़ोर कवितायेँ, बकवास कवितायेँ... लेकिन भाव के धरातल पर पूर्ण रूप से सच्ची, सरल एवं सहज! <a href="http://www.anusheel.in/" style="color: #3333ff;">अनुशील</a> पर दो वर्ष से लिखते हुए सहेजा है बहुत कुछ, अब मन है कुछ कहानियां सहेजने का... कविताओं की कहानी!</div>
<div style="text-align: justify;">
तो शुरू करते हैं... नीले अंबर तले एक और सफ़र... कविताओं के पीछे की कहानी उकेरने का सफ़र! शायद इसी प्रयास में सभी कविताओं से पुनः गुज़रते हुए पुनर्पाठ के साथ कुछ आवश्यक सुधार भी हो जाएँ... कविताओं को तराशने का हुनर आ जाये हमें अनायास ही... जैसे अनायास बह जाती है कविता!</div>
<div style="text-align: justify;">
काश...</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-35949083459485331012012-03-28T09:40:00.006+02:002013-07-10T14:45:22.961+02:00'अनुशील' की यात्रा विम्बित करते हुए...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkCNYY-6y4lrmA9tFXfk_A3luMow7Z1afeScNlaWKJ3RVasSloejYYjVMCW-tm6mpZtZyBuo13zziHR9Z5KIhPulYSCig38vcnH2fV2G9msfgBTiH69MLuZ7O0rKVJbjvL-aprBYz5TD8/s1600/IMG_1325.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5724850409644339490" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkCNYY-6y4lrmA9tFXfk_A3luMow7Z1afeScNlaWKJ3RVasSloejYYjVMCW-tm6mpZtZyBuo13zziHR9Z5KIhPulYSCig38vcnH2fV2G9msfgBTiH69MLuZ7O0rKVJbjvL-aprBYz5TD8/s320/IMG_1325.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
<h6 class="uiStreamMessage" ft="{"type":1}" style="font-weight: normal;">
<span style="font-size: 180%;"><span class="messageBody" ft="{"type":3}"><a href="http://www.anusheel.in/" style="color: #000099;">अनुशील</a> पर जब लिखना शुरू किया था तब कहाँ पता था कि सैकड़ों पन्ने यूँ ही बचपन से अब तक खो देने वाली यह लड़की... </span>अपनी</span><span style="font-size: 180%;"><span class="messageBody" ft="{"type":3}"> वेबसाइट पर दो सौ पोस्ट के आंकड़े पार कर पाएगी... और कुछ भी नहीं खोएगा!<br />सब एक स्थान पर संकलित मिलेगा... जिसे वह जब चाहे तब पलट पाएगी:)<br /><br />कवितायेँ, आंसू और भाव तो थे...<br />पर कभी सहेजे नहीं गए...<br /><span class="text_exposed_show"> फिर, एक दिन<br /><a href="http://lalitkumar.in/blog/about/" style="color: #000099;">किसी ने</a> वृक्ष, पंछी और बादलों से सजा कर<br />'<a href="http://www.anusheel.in/">अनुशील</a>' उपहार में दे दिया<br />तब से<br />सहेज रहे हैं कितना कुछ उसके प्रताप से!<br />अब<br />इस अनूठे श्रेय के लिए<br />कैसे(?)<br />आभार व्यक्त किया जाता है...<br />ये नन्हा सा प्रश्न<br />पूछते हैं हम<br />अपने आप से!<br /><br />तब...<br />अन्दर सबकुछ<br />मौन हो जाता है<br />जुड़ते हैं जब भाव<br />दूरी का आभास<br />गौण हो जाता है...!!!</span></span></span></h6>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-66454505364207586052012-03-27T07:56:00.006+02:002013-07-10T14:46:15.002+02:00शब्द बोलते हैं...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnfTT9fgnEUJ56KIcC9GREoupEcuihZ89J2Jyfr9E1PMbDwZW0kzW4RBRhW9JnMPm8YmQbFAF4sq_GInlm4ZFP6WneNzAMPwd3AYv3c5XT9C9RfcQta0_ZN0lGIPqWooK9EkYcm1WlLws/s1600/IMG_1406.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5724451913548068962" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnfTT9fgnEUJ56KIcC9GREoupEcuihZ89J2Jyfr9E1PMbDwZW0kzW4RBRhW9JnMPm8YmQbFAF4sq_GInlm4ZFP6WneNzAMPwd3AYv3c5XT9C9RfcQta0_ZN0lGIPqWooK9EkYcm1WlLws/s320/IMG_1406.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
<div style="text-align: justify;">
मेरे कलम की स्याही सूख गयी है... लिखना संभव नहीं है, अभी बहुत कुछ यहाँ वहाँ का सोच समझ रहे हैं... शब्द कहते हैं- रुको थोड़ा ठहरो... हमें ज़रा भीतर की हलचल महसूसने दो, लिख जाओगी हमें तो फिर हम बाहर के हो जायेंगे... वहाँ तुम्हें या तुम्हारे शब्दों को समझने वाला कोई नहीं होगा...!</div>
<div style="text-align: justify;">
शब्दों को भी दुनिया की भीड़ में अर्थ सहित खो जाने का डर है... क्यूंकि भाषा बदल गयी है... आचरण के व्याकरण बदल गए हैं... संवेदना का कोई सोता चिरायु होने का दावा नहीं करता... हर ओर प्रभाव का गणित काम करता है...; ऐसे में सरल सहज सरिता सी बहने वाली कलम का सूखना स्वाभाविक ही है...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
*****</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिर एक आवाज़ वहीँ कहीं भीतर से, शब्द ही बोल रहे हैं फिर से... पर कुछ अलग सा स्वर है... किनारों पर किरणें चमक रही हैं और आस विश्वास के साथ अक्षर अक्षर आपस में मिल कर कुछ बुन रहे हैं... प्रकाश के झालर सा कुछ! यह लटकेगा दरवाज़े पर और जीवन की राह रौशन हो जायेगी...</div>
<div style="text-align: justify;">
कहते हैं शब्द- बुनो तुम भी एक ऐसा प्रकाश वृत्त जहां अँधेरा हो भी तो प्रकाश की सम्भावना से इनकार न हो...</div>
<div style="text-align: justify;">
स्याही का रंग जो भी हो, लिखे वह केवल उज्जवल प्रतिमान, जिससे निराश ज़िन्दगी उसतक जाकर अपने लिए मुट्ठी भर सवेरा उठा ले और वह चले तो सुनाई दे ऐसी पदचाप जो कलम को पुनः नयी उर्जा से भर दे!</div>
<div style="text-align: justify;">
ये होगा न सुन्दर सहज अन्योन्याश्रित सम्बन्ध!</div>
</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-52338879670766988442012-03-08T08:39:00.008+01:002013-07-23T15:07:44.694+02:00रंग और रहस्य प्रकृति के... प्रकृति ही जाने!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiH6k9ueSlXvMFpHV0iijN8dukgDu-xFXUTXtlaAmrCFLbdb9CpjfgD18U7xMBWc6Yr49lT7VFNPuyocSpMO9_6dB4hGJejiq78VYp0Qj-2MRuTgzHaUs91xwXFUN7k_eNGBBykebd5kH8/s1600/IMG_0656.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5717430021449884802" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiH6k9ueSlXvMFpHV0iijN8dukgDu-xFXUTXtlaAmrCFLbdb9CpjfgD18U7xMBWc6Yr49lT7VFNPuyocSpMO9_6dB4hGJejiq78VYp0Qj-2MRuTgzHaUs91xwXFUN7k_eNGBBykebd5kH8/s320/IMG_0656.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 240px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 320px;" /></a><br />
आज कविताओं से गुज़रते हुए जिस कविता को <a href="http://svenskpoesianusheel.blogspot.se/2012/03/blog-post_08.html" target="_blank">अनुवाद</a> के लिए चुना वह याद दिला गया किसी की... जो अब इस दुनिया में नहीं हैं...<br />
स्वीडिश कवि वर्नर वोन हेइदेन्स्तम की एक कविता वसंत ऋतु पर यूँ कहती है...<br />
<br />
अब यह दुखद है मर चुके लोगों के लिए,<br />
वे वसंत ऋतु का आनंद लेने में सक्षम नहीं हैं<br />
और सूर्य की रौशनी महसूस नहीं कर सकते<br />
प्रकाशयुक्त सुन्दर पुष्पों के बीच बैठ कर.<br />
लेकिन शायद मृत आत्माएं फुसफुसाती हैं<br />
शब्द, फूल और वायलिन के माध्यम से,<br />
जो कोई जीवित प्राणी नहीं समझता.<br />
मृतात्माएं हमारी तुलना में अधिक जानती हैं.<br />
और शायद वे वैसा ही करेंगी, जैसा कि सूरज करता है,<br />
पुनः एक हर्ष के साथ, जो हमसे कहीं अधिक गहरी है<br />
शाम की छाया के संग विचार की उस सीमा तक विचर जाता है<br />
जहां रहस्य ही रहस्य है,<br />
जो केवल कब्र को ज्ञात है.<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
कविता का अनुवाद कर बार बार इसे पढ़ते हुए बड़े पिताजी स्मरण हो आ रहे हैं... ये होली का मौसम है न और यही उनकी विदाई की घड़ी भी थी इस दुनिया से!</div>
<div style="text-align: justify;">
होली ढ़ेर सारे रंग ले कर आती है... ढ़ेर सारी मस्ती लेकर आती है... ढ़ेर सारे पकवान ले कर आती है... हमारे यहाँ भी आती थी एक वक़्त... लेकिन एक ऐसी भी पूर्णिमा थी जब हमारे यहाँ मृत्यु सन्नाटे लेकर आई थी... उधर होलिकादहन हो रहा था और इधर मेरे बड़े पिताजी के प्राण पखेरू उड़ रहे थे... होली का समय था... खबर सुनते ही हमलोग गाँव के लिए तुरंत निकल भी नहीं पाए, दो दिन के बाद यात्रा संभव हो पायी... वह समय कितना कठिन था यह सोच कर आज भी सिहर जाते हैं... हमारी होली कब रंगों से दूर हो गयी हमें पता भी नहीं चला...! पापा की चिंता स्वाभाविक थी... वे बड़े पिताजी के न रहने पर अकेले जो हो गए थे...! आज बारह वर्ष हो गए लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो...!</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
तीन वर्ष पूर्व मेरी शादी हुई... मम्मी और पापा होली के लिए ये कहना कभी नहीं भूलते कि- 'अब तुम्हारा कुल खानदान बदल गया... होली विधि विधान से मनाया करो...', लेकिन यूँ बदलता है क्या भावों का संसार! </div>
<div style="text-align: justify;">
खैर कभी मौका ही नहीं लगा ये विधि विधान पालने का... यहाँ स्टॉक होम में रंग गुलाल कहाँ मिलने वाले हैं जो प्रभु के चरणों में अर्पित करके होली खेलें... सो ये रंग अबीर तो दूर ही हैं हमसे अब भी... और जहां तक पकवानों का सवाल है तो उनके लिए किसी विशेष उत्सव का इंतज़ार थोड़े ही न करते हैं हम, जब मन किया बना लिया... होली में भी बनायेंगे... हमारे स्वामी सुशील जी को घर की कमी महसूस नहीं होने देंगे...!</div>
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<div style="text-align: justify;">
रंग ही तो है... दुःख का हो, सुख का हो, उदासी का हो, प्रेम का हो, विदाई का हो, आगमन का हो या फिर शाश्वत आत्मा की उपस्थिति का... अगर रंग ही होली है तो होली तो हर दिवस है!</div>
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चमकते हुए रंगों का त्योहार आप सभी को मुबारक हो...!</div>
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अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-12880469890147009302012-03-03T07:51:00.003+01:002013-07-10T14:46:56.016+02:00आख़िरी दरवाज़ा!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHk-M0D6YLF-uQZTjnaDw96UydcehwPXe7JCWqJ56Oi9x4onziVp0s_bUz7sX3L1ykBbii7LOX5oYb6yxwllqFVX9zjPJKOxHMfJUeq8R5CAt7f6Llg_FaCIvw6ptF3qFEI4nQsSxLTq8/s1600/IMG_0680.JPG"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5715560729494048306" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHk-M0D6YLF-uQZTjnaDw96UydcehwPXe7JCWqJ56Oi9x4onziVp0s_bUz7sX3L1ykBbii7LOX5oYb6yxwllqFVX9zjPJKOxHMfJUeq8R5CAt7f6Llg_FaCIvw6ptF3qFEI4nQsSxLTq8/s320/IMG_0680.JPG" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 320px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 240px;" /></a><br />
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अपने आप को सर्वसुलभ बना देना ही समस्यायों की जड़ है, सरल होना ही सजा है... ये दुनिया अच्छी नहीं है क्यूँकि लोग अच्छे नहीं है या शायद ये भी हो सकता है कि हम ही अच्छे नहीं हैं इसलिए दुनिया भी बुरी लग रही है. ये दूसरी सम्भावना ही सत्य हो शायद.</div>
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कभी कभी ऐसी खाई सामने नज़र आती है कि आगे बढ़ पाना नामुमकिन सा लगता है... ऐसा प्रतीत होता है मानों जीवन को यहीं समाप्त हो जाना चाहिए, जीने का कोई औचित्य नज़र ही नहीं आता. मन सारे दरवाज़े खटखटा चुका होता है जहां कहीं से भी सहारे की उम्मीद लगायी जा सकती थी और हाथ लगी निराशा से हतोत्साहित हो असीम अन्धकार में डूब जाता है... अपने आप पर से विश्वास उठ सा जाता है कि तभी एक आख़िरी दरवाज़ा खुलता है... और वहाँ दस्तक देते ही सारी समस्या कहीं विलीन हो जाती है.</div>
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सच है, ये अजीब है कि उम्मीद का आख़िरी दरवाज़ा हम सबसे अंत के लिए बचा कर रखते हैं... जान बूझ कर ऐसा नहीं होता, शायद यह अवचेतन में चलने वाली कोई प्रक्रिया है जो सारे कष्ट उठा लेने के बाद ही उस दरवाज़े तक पहुँचने की अनुमति देती है! काश ऐसा होता कि पहली दस्तक ही उस दरवाज़े पर दी होती चेतना ने तो ये मृत्यु तुल्य कष्ट तो भोगने से बच जाती न.... हे ईश्वर! अब जो कभी ऐसी निराशा से सामना हो तो इतनी दया दिखाना कि यहाँ वहाँ भटकने के बजाये सीधे तेरी शरण में आयें... और निराशा के क्षणों में ही क्यूँ सदा सर्वदा के लिए तुम्हारे ही शरणागत हों फिर ये विपदा आये ही न.</div>
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अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-168286744790983934.post-91039803739619144922012-03-02T06:14:00.005+01:002013-07-10T14:47:15.311+02:00एक सुबह की तस्वीर!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg757jGOTd2D63mYHkXk-o6dgjxGi1Vk8lbWZspFez6iCcN5x4ZJ3EoJdUJUUoVsCnajieQwIdbjpWxDGVxNJJyUKy2sDrPU1w9tnq7FwCTR4CbywWjKwzwsbTAQlFZDVWzYmhhs3Ybm1A/s1600/423470_396017713745393_100000115027026_1706596_1537370175_n.jpg"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5715164512673308754" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg757jGOTd2D63mYHkXk-o6dgjxGi1Vk8lbWZspFez6iCcN5x4ZJ3EoJdUJUUoVsCnajieQwIdbjpWxDGVxNJJyUKy2sDrPU1w9tnq7FwCTR4CbywWjKwzwsbTAQlFZDVWzYmhhs3Ybm1A/s320/423470_396017713745393_100000115027026_1706596_1537370175_n.jpg" style="cursor: hand; cursor: pointer; display: block; height: 165px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 220px;" /></a><br />
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हर इंसान से गलतियाँ होती हैं और हमसे तो कुछ ज्यादा ही होती हैं... हर बार हम लोगों को सहज और सरल समझने की भूल कर बैठते हैं और इस वजह से स्वयं तो परेशान होते ही हैं, मेरे अपने भी मेरी वजह से दुखी होते हैं. जिनसे मेरा कोई लेना देना नहीं हैं... जिन्हें दूर दूर तक मेरे आसपास भी नहीं होना चाहिए था ऐसे लोग मेरी ही दी हुई छूट के कारण मेरे ऊपर इस तरह हावी हो जाते हैं कि सम्पूर्ण शांति नष्ट हो जाती है...! अब एक बात तो साफ़ है, समस्या है और समस्या हममें ही है तो सुधार भी हमको ही करना है... अब इसी दुनिया में जीना है तो अपने आप को थोड़ा तो बदलना ही होगा...! बस हमें संतोष इस बात का है कि आसपास तमाम कुप्रवृतियों वाले लोगों के बीच ऐसे भी कुछ ईश्वरीय स्तम्भ हैं मेरे जीवन में जो तार लेते हैं हमको!</div>
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सब विधि का विधान है, इतनी ही बात का संतोष है कि इस सत्य ने अपने आप को प्रमाणित और प्रतिष्ठित कर लिया मेरे हृदय में कि, "जब अन्धकार अपनी सीमा लांघ जाए तो समझ लेना चाहिए कि सुबह होने वाली है!"</div>
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This picture was taken on a morning at Miami Beach. Least did I know then that it would be the profile picture of my website one day and one of my favorite photographs:)</div>
अनुपमा पाठकhttp://www.blogger.com/profile/09963916203008376590noreply@blogger.com0