मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

विश्वास का रंग...!


अनुशील पर बहुत लिखा... उदास दिसंबर का शायद ही कोई दिन बीता हो जब जी भर कर रोई नहीं और रोते रोते कुछ लिखा नहीं... सागर किनारे की अनुभूतियाँ लिखते हुए आज नीला अम्बर बेतरह याद आया तो अब हूँ यहाँ पर... अम्बर श्याम पड़ गया है इस मौसम में... कितने ही दिन सूरज की अनुपस्थिति में अम्बर ने अपने बलबूते किसी तरह जैसे सुबह का खांका खींचा हो... कई बार अम्बर सफल हुआ... कई बार नहीं भी!
मैं यूँ ही शून्य की ओर ताकते हुए सोचती हूँ सुख... तो दुःख वहीँ झांकता हुआ नज़र आता है! कैसी तो स्थिति है किनारे उदास हैं... मझधार भी कुछ खुश नहीं नज़र आता और सागर... सागर तो प्रगल्भ है... उसकी अनुभूतियों की किसे थाह है भला...!
ऐसे में दूर कहीं उगा सूरज जो तनिक लालिमा छिटकता है न पेड़ों की सबसे ऊँची डाली पर... पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पर... वही लालिमा कहती हुई प्रतीत होती है: न उदास हो... जो बीत रहा है वह समय सारी उदासियाँ साथ लेकर बीत जायेगा... और उदासियाँ रह भी गयीं तो उदासियों पर कोई गहरा रंग चढाने नयी सुबह अवश्य आएगी... उस रंग की आस मत छोड़ना कभी... वह रंग है विश्वास का... वह रंग है श्रद्धा का... वही उबारेगा... तुम्हारे डूबते हुए मन को वही तारेगा...!
ईश्वर के श्रीचरणों में कोटि कोटि प्रणाम अर्पित करते हुए सभी के लिए मंगलकामना...!


तस्वीर: इस मौसम में समंदर कैसा है... क्या उतना ही खरा... उतना ही खारा जितने कि आंसू... यही कुछ थाहते हुए लीं थी ये तसवीरें सुबह सुबह...! 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

भींगे मौसम में एक धूप की याद!


लम्बा पुल... पुल पर ये एक दृश्य... कितने ही समय से मन में कहीं पैंठ गए हैं ये ताले और विचर रहा है कहीं उन नामों की कहानी की तलाश में चंचल मन... क्या सचमुच यूँ पुल पर अपने नाम का ताला जड़ कर चाभी सागर के हवाले कर के विश्वस्त हुए लोग हर मौसम में साथ होंगे आज भी... क्या सचमुच उनकी मान्यता ने उन्हें कभी न ख़त्म होने वाला साथ उपहार स्वरुप दिया होगा या जीवन की विडम्बनाओं से जूझते हुए कहीं अलग थलग सी कोई कहानी होगी उनकी... कौन जाने!
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बहुत प्यारा सा कांसेप्ट है, ताले पर अपना नाम अपने प्रिय व्यक्ति के नाम के साथ लिख कर यूँ पुल पर टांक दिया जाए और चाभी हमेशा के लिए बहती धारा के हवाले, कि न कभी खुलेंगे ताले, न कभी जुदा होंगे दो लोग...! काश ऐसा ही आसान, ऐसा ही ताले चाभी के खेल सा सरल होता जीवन... 
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बीते मौसम में एक गर्मियों की शाम थी... हम इस लम्बे से पुल पर कई बार चले... कई बार पुल को पार किया... कभी दृश्यों को निहारने के लिए तो कभी दृश्यों को क्लिक करने के लिए... दो बार तो इन तालों के झुण्ड से चमत्कृत हम पुल के आर पार होते रहे... अनजाने से नाम, अनजाना देश और वही एक जानी पहचानी सी चाह कि अपने अपनों से कभी जुदा न हों हम...!
कितने एक से हैं न हम... धरती का कोई भी कोना हो, आकाश का कोई भी टुकड़ा हो... हर एक कोने में वही हैं मर्म... वही हैं अरमान... और वही एक हैं स्नेह विश्वास के प्रतिमान!
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आज मौसम वो नहीं है जब खिली धूप में हम यूँ ही अनजाने रास्ते नापते हुए भटकते रहे... ये सर्दियों की एक शांत सी शाम है... खूब बारिश हो रही है और बूंदों की आवाज़ इस शान्ति में साफ़ सुनी जा सकती है... खिडकियों पर भी बूंदें हैं और मन भी भींगा सा है... बर्फ गिरने का मौसम नज़दीक है... सब सफ़ेद हो जाएगा... बर्फ की चादर सब ढँक लेगी... ऐसे में एक और नादान सा प्रश्न कहीं उठता है मन में...
बर्फ के फाहों से ढँक कर सब स्वच्छ भी हो जाएगा क्या...? कौन जाने!
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तस्वीर: एक पुल पर चलते हुए तालों ने यूँ ध्यान आकृष्ट किया था कि उस शाम की धूप अब तक खिली है भीतर और भींगे मौसम में सांत्वना बन कर खिल जाने का अपनी ओर से पूरा प्रयास कर रही है... ... ... !!

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

दीवार पर खिली कविता!

ये एक मामूली सी कुर्सी... और इस कुर्सी के यहाँ इस तस्वीर में होने की वजह धूप का वह कतरा जो ढ़लती शाम के साथ खिड़की पर रखे गमले में लहलहाते पत्ते का अक्स ले उभर गया दीवार पर...!
किसी रोज़ यूँ ही ये देख कर क्लिक किया था, और अगले ही क्षण फिर ये कतरा वहाँ नहीं था... तस्वीर है आज. उस क्षण को जीवंत करती, उस एक क्षण के भीतर समाते जाने की अनकही सी कहानी है ये तस्वीर...! कितना कुछ कहती हैं न दीवारें भी, धूप के एक कतरे ने जैसे स्वर दे दिए हों... मूक सी दीवार को, कोई शाम इस कदर मेहरबान रही हो कि अधखुली खिड़की से झाँक कर ढलते हुए अपना कोई निशाँ सा छोड़ गयी हो जिसके प्रताप से दीवार अब भी मुस्कुराती है...! दीवार पर कोई कविता खिली हो जैसे... बिन शब्दों वाली, अनकहा कुछ, मौन सा स्निग्ध और अपरिमेय!
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कई बार होता है, नींद नहीं आती... हम आकाश तकते जागते रह जाते हैं... तारों भरे अम्बर के अकेलेपन को महसूसते हैं. वहाँ कोई एक नित घटने बढ़ने वाला चाँद होता है जो हमारी चेतना में जाने कबसे विद्यमान है, पर ऐसी ही कोई एक जगी जगी रात होती है जब हम उस चाँद को नए सिरे से पहचानते हैं, उसके गुण तहते हैं, उससे अपनी बातें कहते हैं...! दूर होकर भी वही है जो धैर्य से सब सुनने को तत्पर रहता है... सुनता ही तो आया है वो धरती वालों का दर्द... दिगदिगंत से; अपने घटने बढ़ने का दर्द कभी कहाँ कहा उसने किसी से...! क्या चाँद को कोई हमदर्द नहीं मिला...? कौन जाने!
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जैसे एक टुकड़ा धूप का वैसे ही टुकड़ा-टुकड़ा मन और मन की कुछ बातें... तस्वीर ने लिखवाया, दीवार ने लिखवाया, परिचय की एक सुनहरी किरण है जिसने शब्दों का हाथ थाम उन्हें सजाया, सज गया है बेतरतीब जैसे, वैसा ही सहेज लिया गया इधर, बस और कुछ नहीं...!
  

रविवार, 8 सितंबर 2013

कोहरा!

कोहरा बहुत ज्यादा है… कुछ नहीं दिख रहा… मेरी  खिड़की से जो हरियाली दिखती है, जो आसमान पर उगते सूरज द्वारा की गयी चित्रकारी दिखती है वो सब गायब… बस है तो कोहरा. ये बर्फ गिरने के मौसम वाला धुंधलापन नहीं है… न ही मुसलाधार बारिश में जो कुछ न देख पाने की स्थिति पैदा होती है, वह ही है.… यह कुछ और है, कोई और ही मौसम है, कोई और ही खेल है विधाता का! 
कोहरा घना है, छंट जाएगा ऐसा दीखता तो नहीं पर छंट जाने की सम्भावना दिख जाती है कोहरे के बीच से ही… हरे पेड़ नहीं दिख रहे पर सामने ही चर्च से सटे जो खम्भा खड़ा है न इंटों का, वह झलक रहा है. पहले तो कभी यूँ नहीं दिखी यह दिवार, आज कोहरे ने सबकुछ छुपा कर न दिखने वाली कोई चीज़ दिखा दी है. 
मन के कोहरे से झांकती एक ज्योत जैसे हम तक पहुँचने का प्रयास कर रही हो. कितना भी प्रयास कर ले ज्योत, हम कितनी भी मिन्नतें कर लें पर रौशनी तक का सफ़र तो खुद ही तय करना होता है. ज्योत तक खुद ही बढ़ना होता है.
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अब कुछ एक घंटे बीत चुके है, कोहरा छंट चुका है, मेरी खिड़की से दृश्यमान मंज़र फिर से दिखने लगे हैं और देख रहे हैं कि खम्भे की ओर से भी मेरा ध्यान हट चुका है.… 
बस इतनी प्रार्थना करते हैं चुपचाप कि ये खम्भा तो वैसा ज़रूरी नहीं था ध्यान में न रहे कोई बात नहीं, पर जब मन का कोहरा छंटे तो कोहरे में दिख रही ज्योति विस्मृत न हो जाए हमसे!
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तस्वीरें: ये खिड़की से दिखता कोहरा और उसका छंटना…
मन के कोहरे की कोई तस्वीर नहीं होती, ये हम सबके भीतर होता है… और हम सबकी ज्योत भी जुदा जुदा और केवल अपनी होती है, सो उन कोहरों की तसवीरें आप स्वयं तलाशें…  तराशें! 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

कुछ यहाँ वहाँ के टुकड़े!

मिन्नतें करने से नहीं आती बारिशें... और न ही चिट्ठियां, उन्हें आना होगा तो बेधड़क आएँगी, खूब आएँगी... मन प्राण खुशियों से भिंगाने, नहीं आना होगा तो नहीं आएँगी, भले कितनी ही मिन्नतें कर ली जाएँ... चिट्ठियां तभी न आ सकती है जब कोई लिखे उधर से और पता टाँके हमारे नाम का... बारिशें तभी न बरस सकती हैं जब कोई हो वहाँ ऊपर बादलों की बोरियों की गाँठ खोलने वाला... ऐसा कोई होगा नहीं, या होगा भी पर उसके पास न हो फुर्सत और न ही फुर्सत निकालने की कोई तमन्ना तो कैसे होंगी बारिशें, कैसे पहुंचेंगी चिट्ठियां...
ये बदमाश मन ये छोटी सी बात क्यूँ नहीं समझता आखिर और बार बार उलझता है ऐसी पहेली से जो सुलझने को तैयार ही नहीं...!
हो तो यह भी सकता है कि चिट्ठियां आ सकें इस लायक हो ही नहीं हम... बारिशें भी खूब जानती हैं उन्हें कहाँ बरसना है, उनको संयंत्रित नहीं कर सकते हम...! अपने आप से ही नाराज़ होकर खूब सारी बूंदें आँखों से बरस जाएँ ये ही हो शायद अपने हिस्से की बारिश....
और चिट्ठी... उसकी तो आस ही व्यर्थ है...!
6.7.12
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कभी हुआ है ऐसा कि आवाजें सुनने को तरस गए हों? एक अजीब सी नीरवता हो जहां अपने आप तक पहुँच पाना भी मुश्किल सा लग रहा हो?
होता है अक्सर ऐसा… आवाजें सुनने को तरसे हुए, किसी अज़ीज आवाज़ तक पहुंचे भी हों पर संवाद की सम्भावना शून्य लगी हो और रुंधे हुए गले ने किसी हेल्लो का ज़वाब दिए बगैर काट दिए हों फ़ोन. होता है ऐसा, कई बार हुआ है. स्कूल के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी हॉस्टल में होते थे तब लगातार होता था… (घर से दूर रहना असह्य हुआ करता था और हमसे लौट जाने के कितने ही उपक्रम करवाता था… पर रहना तो पड़ा ही और पूरे सात वर्ष रहना हुआ, खैर ये अलग कहानी है.…. ) अब भी होता है रुंधे गले द्वारा यूँ ही संवाद करने की असमर्थता के कारण फोन डिसकनेक्ट करना… यहाँ वहाँ यदा कदा.
अपनी आवाज़ तक पहुंचना भी कभी कभी कितना नामुमकिन सा लगता है न!
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पहला... ये शब्द ही ऐसा है, कि इसके बाद जो भी शब्द लगे वो इतना खूबसूरत हो जाता है कि फिर आजीवन उसके मोह से नहीं निकला जा सकता!
ज़िन्दगी भी वैसी ही खूबसूरत शय है... जी जानी चाहिए, हर हाल में!
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अलविदा कहते हुए जो आँखें भर आयीं तो अब तक नम हैं, दूर हो कर भी लोग साथ हो सकते हैं.… यही एक बात है जो बहुत बड़ी सांत्वना है जीवन के लिए.… 
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जीवन ने जो भी सीखाया, सब सीख कहाँ पाए हम, अब भी राहों में चलना कहाँ आता है हमें! जीवन की पाठशाला के अच्छे विद्यार्थी होने का मर्म ही समझ रहे हैं और दर्द रुपी शिक्षक हर पल हमारे सिरहाने बैठा हमें राह दिखा रहा है, कितना सीख समझ पाते हैं यह तो वक़्त पर छोड़ देना ही बेहतर है.
सभी गुरुओं को नमन!
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तस्वीर: बाल्टिक सागर में डूबती एक शाम… 
सब टुकड़े हैं, कोई किसी से जुड़ा नहीं है वैसे ही यह तस्वीर भी असम्बद्ध है टुकड़ों से फिर भी मेरा मन एक सम्बद्धता देख रहा है सभी टुकड़ों में तो तस्वीर भी साथ टांक रहे हैं.… हो सकती है न ये डूबती शाम भी विशाल सागर में निपट अकेली और उदास…!
और हाँ इस बेवजह के यहाँ वहाँ में, सबसे महत्वपूर्ण hello की कथा कहानी, जिसका लिंक हमने ऊपर भी दिया है… कितनी बार कहते हैं न हम यह शब्द पर कहाँ जानते हैं इसके बारे में इतना कुछ.…!

बुधवार, 21 अगस्त 2013

एक कविता याद आती है!


जीवन कितना सुन्दर है… कितने सुन्दर हैं लोग… और कितनी सुन्दर होती थीं वे राखियाँ जो स्कूल ऑफ़ होप के बच्चे बनाते थे…! याद है हमें ये मौसम आता था, रक्षा बंधन की धूम होती थी तब हमारे स्कूल में स्कूल ऑफ़ होप से बन कर आई राखियाँ बिकती थीं, हम सभी खरीदते ही थे! आज रक्षा बंधन पर हमें वे राखियाँ याद हो आयीं! स्कूल ऑफ़ होप में मुस्कुराती ज़िन्दगी को सलाम!
*****
एक कविता भी याद आती है… उन दिनों की, हमारी कोर्स बुक में हुआ करती थी: :

The Feather of Dawn

Beloved I offer to you
In tender allegiance anew
A bracelet of floss, let me twist
And violet, to girdle your wrist.

Accept this bright gage from my hand
Let you heart its sweet speech understand
The ancient high symbol and end
In wrought on each gold-threaded strand,
The fealty of friend unto friend.

A garland how frail of design,
Our spirits to clasp and entwine
In devotion unstained and unbroken,
How slender a circle and sign
Of secret deep pledges unspoken!

- Sarojini Naidu 

कितना दोहराते थे न हम कविताओं को उन दिनों परीक्षा की दृष्टि से! उसके अर्थ, उसकी व्याख्या, पंक्तियाँ और पंक्तियों के बीच का मौन सब बोलता था. कितने मन से पढ़ाई गयी थी वे कवितायेँ हमारे टीचर्स द्वारा, उस वक़्त कहाँ था यह एहसास हमें! आज भी याद हैं कवितायेँ, कहानियां भले और पाठ भूल गए हों इतिहास भूगोल व विज्ञान के!
साहित्य, कविता, कथा: ये सब मन में बसते हैं… मन से ही पढ़े जाते हैं, तभी तो याद रह जाते हैं! जिस भी क्षेत्र से जुड़े लोग हों साहित्य के प्रति एक सहज अनुराग होना ही चहिये… इन फैक्ट, होता ही है!
*****
तस्वीर: धागे में गुथे मोती इस रिश्ते का सौन्दर्य दर्शाते हैं और सरोजिनी जी की कविता में वर्णित  A garland how frail of design को भी सत्यापित करते हैं… secret deep pledges unspoken को पढ़ लेने की संवेदनशीलता हममें हो, यही कहता है धागा!

रविवार, 18 अगस्त 2013

जिसने सबक याद कर लिया उसे छुट्टी नहीं मिली!


सैर करने आये थे सैर-ए-गुलशन कर चले
संभालो माली बाग़ अपना हम तो अपने घर चले

ब्रिलियंट ट्युटोरियल  के कांटेक्ट क्लासेज में जमशेदपुर आया था एक शिक्षक, पुणे से, १९९९ में! केमिस्ट्री के पाठों के साथ जीवन के कई पाठ पढ़ा जाने वाला वह इंसान जाते हुए यही शेर कह गया था...! जो याद है, वह लिख दिया ऊपर... किस शायर ने कहा न ये ज्ञात है और न ही हमें है वर्तनी की तमीज़ का ही पता. हम तो बस इतना जानते हैं कि यह कह कर विदा लेने वाला वह शिक्षक हमेशा के लिए अपना हो गया... हम विद्यार्थियों को हमेशा के लिए अपना बना गया!
कितने ही नुस्खे सिखाये उसने पीरियोडिक टेबल कंठस्त करने के, फिजिकल केमिस्ट्री के कितने सिद्धांतों को आसानी से समझाया और सबसे ज्यादा जो चीज़ सीखाई वह थी जुड़ना अपने आप से, एक दूसरे से, समाज से और राष्ट्र से!
आर्गेनिक केमिस्ट्री पढ़ाते हुए कब वो सामाजिक सिद्धांतों की व्याख्या करने लगते, पता ही नहीं चलता और सबसे बड़ा चमत्कार यह था कि सबसे अधिक इफेक्टिव उनके ही क्लासेज रहे.
होता क्या है, दो तीन दिनों के कांटेक्ट क्लासेज में नए शिक्षक के साथ ताल मेल बिठाने में ही वक़्त लग जाता है... पर यह तो ऐसा इंसान था कि आते ही सबसे यूँ जुड़ गया था मानों हम वर्षों से उसके विद्यार्थी रहे हों.
उनके फ़ोल्डर्स में बहुत सारी चिट्ठियां थीं... कुछ उन्होंने हमें दिखायीं भी, ये सब उनके समय समय पर विद्यार्थी रहे लोगों के ख़त थे. हमें होम्वर्क मिला था कि उनकी बताई गयी युक्ति से पीरियोडिक टेबल कंठस्त करेंगे और यह करने के बाद उन्हें पत्र लिखना, होम्वर्क किया, ये कन्फर्म करने के लिए किया जाने वाला उपक्रम होगा. उन्होंने तुरंत स्पष्ट किया था कि वे अपने विद्यार्थियों द्वारा लिखे हर पत्र का जवाब देते हैं...!
दो दिन बीत गए, कांटेक्ट क्लासेज की अवधि समाप्त हुई और ब्रिलियंट  ट्युटोरियल का कारवां आगे बढ़ गया...!
उनके आदेशानुसार चीज़ों को कंठस्त कर हमने पत्र लिखा था उन्हें... फिर भूल गए लिखकर. कुछ ही दिनों में उनका जवाब आया, एज ही हैड प्रॉमिस्ड! एक बेहद सुन्दर अनुभूति थी उस पत्र का मिलना... फिर समय समय पर उन्हें कई पत्र लिखे हमने, सबके जवाब भी पाए. बी एच यु के दिनों में भी हॉस्टल से उनको पत्र लिखते थे, जैसे कि शिक्षक दिवस के मौके पर, और जवाब भी पाते थे... अब वो हमें यूँ संबोधित करने लगे थे... Dear Anupama Beti और मेरी कविताओं से भी उनकी पहचान हो गयी थी!
याद नहीं कब अंतिम बार लिखा था... कब अंतिम बार उनके जवाबी अंतर्देशिये पाए थे... शायद २००५ या २००६ के दौरान. फिर इधर उधर उलझ गए, घर बदल गया... देश छूट गया और वह डायरी भी जिसमें उनका पता लिखा था... डायरी होगी घर में कहीं, वापस लौटेंगे तो ढूंढेंगे पर अभी के लिए असमंजस यह है कि आधा अधूरा पता जो याद है उसतक चाहें भी तो चिट्ठी पोस्ट कैसे करें... उनका नाम तो विस्मृत हो ही नहीं सकता... पते के नाम पर जो याद है वह बस अपार्टमेंट का नाम है, शेष कुछ भी ठीक ठीक याद नहीं!
वे रिटायर्ड प्रोफ़ेसर थे ए. एफ़. एम. सी. पुणे से,  उनके एक हाथ में एक छड़ी हुआ करती थी जिसके सहारे वे चलते थे और उत्साह हुआ करता था अपरीमित उनकी वाणी में!
एक और कुछ कहा था उन्होंने यूँ... 

मर्तबे इश्क का दस्तूर निराला देखा 
जिसने सबक याद कर लिया उसे छुट्टी नहीं मिली

शब्द व वर्तनी में सुधार की गुंजाइश हो सकती है, हमें जो याद है सो लिखा है बस...

The institution of love follows a different set of rules... here the ones who learn the lesson are captivated for life... 
He explained this to a bunch of confused students, (all completely finding themselves lost in preparation of various entrance examinations), with full conviction and authority!
He further explained to us drawing a parallel to our situation... Once we follow his instructions and learn the subject his way, he guaranteed our falling in love with the subject and thus never getting out of the subject's spell.

इस तरह विस्तृत कैनवास पर चित्र खींच गया वह ट्रैवलर, अंदाज़ अलग था उसका... फिर कोई ऐसा नहीं मिला जो एक दो दिन की सीमित घंटों की कक्षा में अपने लेक्चर से यूँ छाप छोड़ गया हो कि जीवन भर के लिए वो पथ अपने हो गए...!
तो एक पत्र यहीं पर उनके लिए... 

Dear Professor Uncle,
चरणस्पर्श प्रणाम!

पूर्ण विश्वास है कि आप स्वस्थ व सानंद होंगे... अपना ज्ञान और प्यार विद्यार्थी समुदाय में उसी उत्साह के साथ मुक्तहस्त लुटा रहे होंगे...! आपने ही कभी पत्र में लिखा था we should do our job well and leave all to destiny for destiny knows what is best for us...
आज जब कभी विचलित होता है मन तो आपकी यह बात ध्यान में अवश्य आती है...
With prayers for your good health and happiness,

Yours Sincerely,
Anupama
*****
तस्वीर: आज पता नहीं कहाँ से ये लिख गया और तस्वीर ढूंढी कोई अनुकूल तो इस तस्वीर ने रोक लिया जबकि हम बाग़ की छवि लगाना चाहते थे. ये तस्वीर जुनिबैकेन के पास ली गयी थी यहीं स्टॉकहोम में. कोई बैठा पढ़ रहा है मुनिवत, और पास बैठी नन्हीं चिड़िया की आकृति जैसे झाँक रही हो पन्नों में. 
तस्वीर का क्या है... जोड़ना चाहें तो जोड़ दें लिखित भावों से या फिर अलहदा भी रहे वो तो कोई बात नहीं... !आखिर कहाँ सब बातें पर्फेक्ट्ली जुड़ पातीं हैं आपस में... केयोस के कनफ्यूज़न में भी संगीत होता है... बस सुनने की क्षमता होनी चाहिए!