सोमवार, 16 अप्रैल 2012

यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही...!


छुट्टी है तो क्या... घर पर नहीं बैठना हमें... यूँ ही इधर उधर भटकता रहे मन... उलझे रहे अकेले-अकेले दिन भर, उससे अच्छा है चलो ट्रेन से एक अच्छी भली यात्रा पर... किताब ले लेते हैं, कुछ पढ़ाई भी हो जायेगी और घर (भारत) भले नहीं जाना है अभी... तो क्या हुआ? अर्लांडा एअरपोर्ट के दर्शन ही कर आते हैं... यही सब सोच कर निकले थे उस दिन घर से.
अच्छा ही किया..., ट्रेन चल रही थी और हम स्थिर थे तो कुछ पन्ने पढ़ डाले... कुछ कुछ निश्चिंत भी हुए कि डेड लाईन से पहले ठीक ठीक समाप्त कर लेंगे ये असाइंमेंट...! ट्रेन चल रही थी... हमेशा तो बीच में ही गंतव्य आ जाता था... इसलिए इतनी दूरी तक आने का कभी अवसर हुआ नहीं... शायद स्टॉक होम उतरने के बाद अर्लांडा एअरपोर्ट से हुडिंगे तक आये थे तभी इस राह को देखा होगा २००९ अगस्त में फिर कहाँ इधर आना हुआ... अब तो उस दिन निकले ही थे अंतिम स्टेशन तक जाने की खातिर सो कोई हड़बड़ी नहीं थी... अंतिम स्टेशन तक जाना है इसलिए एक निश्चिन्तता सी थी...
दृश्य बदल रहे थे... रूकती थी और पल में पड़ावों को पीछे छोड़ बढ़ जाती थी ट्रेन! पन्ने पलटते हुए किताब के दृश्य भी परिवर्तित हो रहे थे... उपन्यास का मुख्यपात्र जीवन के अंतिम पलों में खिड़की से झांकता हुआ अपने जीवन का आकलन कर रहा है... पचास सालों के बाद अपने देश की धरती पर लौट कर अपने मृत भाई से जुदा हो कर भी कभी न जुदा हुए सामीप्य का अनुभव करता है... अपने पूरे जीवन पर सरसराती उसकी निगाहें सोच में डूबी हैं कि इतने वर्षों जीकर क्या उसने कुछ अलग कर लिया जो किशोरवय में मृत्यु की गोद में समा जाने वाला उसका एकलौता बड़ा भाई नहीं कर सका... वह सालों बाद अपने देश स्वीडन लौटा है... दृश्य बदल चुके हैं, कोई उसे नहीं पहचानता... किसी को उसका मृत बड़ा भाई भी याद नहीं है...!
अभी भी काफी पन्ने शेष हैं विल्हेल्म मोबेरी द्वारा लिखित नोवेल 'Din stund på jorden' के (धरती पर तुम्हारा समयकाल). आशा है ऐसी ही एक दो और निरुद्देश्य यात्राओं में ये किताब पढ़ लेंगे हम! इस किताब की बात फिर कभी...
अब दृश्य कुछ अलग से थे बाहर... शहर से दूर... निर्जन लेकिन बहुत सुन्दर भी..., सोचने लगे कि भारत जाने के लिए जब अर्लांडा एअरपोर्ट तक की यात्रा करेंगे हम तो कितना अच्छा लगेगा... लेकिन फिर इस कल्पना से मन को खींच लिया...! अभी जब जाना नहीं है तो इतना कुछ सोच कर मन को कष्ट देना ठीक नहीं...
अब मन शून्य आकाश की तरफ देख रहा था... कुछ कवितायेँ भीतर बह रही थीं... कुछ एक भीतर बहती बूँदें आँखों तक आयीं तो एक कविता जैसा कुछ स्वमेव लिख गया बुकमार्क की तरह इस्तमाल किये जा रहे कागज़ के टुकड़े पर... अनायास इस बेमतलब की यात्रा का हासिल बन गयी कविता!
उस कविता को अनुशील पर लिख दिया... अब कागज़ के टुकड़े पर से तो खो ही जाता न वो... और खो जाती ये कहानी भी मन के किसी अँधेरे से कोने में इसलिए लिख दी यह कहानी भी यहाँ...!
अभी कुछ एक रोज़ पहले कविताओं की कहानी लिखने की बात कही थी... व्यस्तताओं ने अवसर ही नहीं दिया... तो आज इसी कड़ी की शुरुवात मान लें एक निरुद्देश्य यात्रा का हासिल कविता और उसकी छोटी सी कहानी को...!

यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही... कहीं न पहुंचना हो फिर भी चलना चाहिए, जाने कहाँ विलक्षण दृश्य... और अनमोल क्षण हमारा इंतज़ार कर रहे हों...!

फिर सब अच्छा ही होगा!!!


श्वेत श्याम तस्वीर लिए सुबह खड़ी थी... पूरब दिशा में कोई लाली नहीं, कहीं पर नीले रंग की सुषमा नहीं... आकाश काला पड़ा था और धरती सफ़ेद... बर्फ़ से पटी हुई. हवाओं में लहराते बर्फ़ के फाहों को अपने दामन में समेट जैसे ठूंठ पेड़ अपने श्रृंगार का सामान जुटा रहे थे... और गर्मी का मौसम आते आते जैसे राहों में ठिठक गया था कहीं और...! दृश्य बदलते देर नहीं लगती... अब रात ही को तो नीले अम्बर पर चाँद खिला था, सुबह चाँद को तो चले ही जाना था पर नीला अम्बर भी अपना रूप परिवर्तित किये था... मानों चन्द्र वियोग में काला पड़ गया हो और धरा को भी जिद्द वश हरेपन की और बढ़ने से रोक रहा हो, बरस बरस कर एक उजली चादर मानों डाल दी पृथ्वी पर और श्वेत श्याम करके सबकुछ निश्चिंत बैठ गया हो... भला क्या बैर है रंगों से गगन को!!!
उदास होता है जब मन तो रंग, रंग नहीं दीखते... सब विदा हो जाता है आँखों के वृत्त से; अब आसमान उदास होगा तो ऐसा ही कुछ होगा न... उसके वृत्त में रंगों का प्रवेश निषेध हुआ तो धरा को रंग कहाँ से मिलेंगे...? अद्भुत दृश्य सृजित करने वाली बर्फ़ के फाहों की बारिश एक समय के बाद मातमी भी लगती है...! असमय ऐसा क्यूँ....?.... ये तो अप्रैल का महिना है... हरे रंग के विस्तार को देखने को आतुर हैं नयन... रंग बिरंगे फूलों के अवतरित होने की घड़ी है... ऐसे में अपनी सारी दिव्यता के साथ भी आएगी तो प्रभावित नहीं कर पाएगी बर्फ़ीली बारिश...! मखमली घास को छू कर लौटा मन उनके बर्फ़ से आच्छादित होने की कल्पना कर ही सिहर उठता है...
ये तो है हमारा सोचना विचारना हुआ... अब प्रकृति के खेल तो उतने ही निराले हैं... कौन जाने वो क्या सोचती है? कल और आज की सुबह लगता है मानों दो भिन्न मौसम की सुबहें हों... कल था अँधेरा, बर्फ़ ऐसे पड़ रही थी जैसे दिसंबर-जनवरी का महिना हो और अभी यूँ धूप खिली है मानों वो श्वेत श्याम सुबह महीनों पूर्व की बात हो... पेड़ खुश हैं... खिड़कियाँ धूप के आने को राह बना रही हैं और धूप में नाचती किरणें उछलती कूदती कह रही है- 'जाओ देख आओ मखमली घास को... रंग और न निखर आया हो तो कहना!'
वाह री धूप! हम लिख रहे हैं तो साथ साथ तुम पढ़ती भी जा रही हो क्या मेरे मन को...? चलो अच्छा है खिली रहो आज दिन भर, आज वैसे भी बहुत काम है तुम्हें... धरती के नम हिस्सों को ठिठुरन से बचाना है तुम्हें... पोर पोर में समा कर नमीं सोखनी है तुम्हें..., कोर नम रह जाएँ तो रहने देना... धरा की आँखों में खुशियों की धूप भरना हमारा काम है... मिलजुल कर लेंगे हम इस दायित्व का निर्वहन... तुम पेड़ों को जीवन देना, हम मिलजुल कर संवेदनाओं को जीवन देंगे, सौहार्द प्रेम के बीज अंकुरित होंगे... धरा स्वर्ग थी, स्वर्ग है और स्वर्ग ही रहेगी...!
बस देखते रहना... बने रहना और माहौल बनाये रखना... निराश हो जाते हैं हम... इंसान जो हैं...; हे धूप! तुम्हारी तरह खिल कर मुस्कुराहट बिखेरने में दक्ष नहीं हैं हम... तुम्हें लगे रहना है... हमें प्रेरित करते रहना है... लोगों की भीड़ में इंसान तलाशते रहना है... कुछ एक भी मिल गए...फिर क्या, फिर सब अच्छा ही होगा!!!