छुट्टी है तो क्या... घर पर नहीं बैठना हमें... यूँ ही इधर उधर भटकता रहे मन... उलझे रहे अकेले-अकेले दिन भर, उससे अच्छा है चलो ट्रेन से एक अच्छी भली यात्रा पर... किताब ले लेते हैं, कुछ पढ़ाई भी हो जायेगी और घर (भारत) भले नहीं जाना है अभी... तो क्या हुआ? अर्लांडा एअरपोर्ट के दर्शन ही कर आते हैं... यही सब सोच कर निकले थे उस दिन घर से.
अच्छा ही किया..., ट्रेन चल रही थी और हम स्थिर थे तो कुछ पन्ने पढ़ डाले... कुछ कुछ निश्चिंत भी हुए कि डेड लाईन से पहले ठीक ठीक समाप्त कर लेंगे ये असाइंमेंट...! ट्रेन चल रही थी... हमेशा तो बीच में ही गंतव्य आ जाता था... इसलिए इतनी दूरी तक आने का कभी अवसर हुआ नहीं... शायद स्टॉक होम उतरने के बाद अर्लांडा एअरपोर्ट से हुडिंगे तक आये थे तभी इस राह को देखा होगा २००९ अगस्त में फिर कहाँ इधर आना हुआ... अब तो उस दिन निकले ही थे अंतिम स्टेशन तक जाने की खातिर सो कोई हड़बड़ी नहीं थी... अंतिम स्टेशन तक जाना है इसलिए एक निश्चिन्तता सी थी...
दृश्य बदल रहे थे... रूकती थी और पल में पड़ावों को पीछे छोड़ बढ़ जाती थी ट्रेन! पन्ने पलटते हुए किताब के दृश्य भी परिवर्तित हो रहे थे... उपन्यास का मुख्यपात्र जीवन के अंतिम पलों में खिड़की से झांकता हुआ अपने जीवन का आकलन कर रहा है... पचास सालों के बाद अपने देश की धरती पर लौट कर अपने मृत भाई से जुदा हो कर भी कभी न जुदा हुए सामीप्य का अनुभव करता है... अपने पूरे जीवन पर सरसराती उसकी निगाहें सोच में डूबी हैं कि इतने वर्षों जीकर क्या उसने कुछ अलग कर लिया जो किशोरवय में मृत्यु की गोद में समा जाने वाला उसका एकलौता बड़ा भाई नहीं कर सका... वह सालों बाद अपने देश स्वीडन लौटा है... दृश्य बदल चुके हैं, कोई उसे नहीं पहचानता... किसी को उसका मृत बड़ा भाई भी याद नहीं है...!
अभी भी काफी पन्ने शेष हैं विल्हेल्म मोबेरी द्वारा लिखित नोवेल 'Din stund på jorden' के (धरती पर तुम्हारा समयकाल). आशा है ऐसी ही एक दो और निरुद्देश्य यात्राओं में ये किताब पढ़ लेंगे हम! इस किताब की बात फिर कभी...
अब दृश्य कुछ अलग से थे बाहर... शहर से दूर... निर्जन लेकिन बहुत सुन्दर भी..., सोचने लगे कि भारत जाने के लिए जब अर्लांडा एअरपोर्ट तक की यात्रा करेंगे हम तो कितना अच्छा लगेगा... लेकिन फिर इस कल्पना से मन को खींच लिया...! अभी जब जाना नहीं है तो इतना कुछ सोच कर मन को कष्ट देना ठीक नहीं...
अब मन शून्य आकाश की तरफ देख रहा था... कुछ कवितायेँ भीतर बह रही थीं... कुछ एक भीतर बहती बूँदें आँखों तक आयीं तो एक कविता जैसा कुछ स्वमेव लिख गया बुकमार्क की तरह इस्तमाल किये जा रहे कागज़ के टुकड़े पर... अनायास इस बेमतलब की यात्रा का हासिल बन गयी कविता!
उस कविता को अनुशील पर लिख दिया... अब कागज़ के टुकड़े पर से तो खो ही जाता न वो... और खो जाती ये कहानी भी मन के किसी अँधेरे से कोने में इसलिए लिख दी यह कहानी भी यहाँ...!
अभी कुछ एक रोज़ पहले कविताओं की कहानी लिखने की बात कही थी... व्यस्तताओं ने अवसर ही नहीं दिया... तो आज इसी कड़ी की शुरुवात मान लें एक निरुद्देश्य यात्रा का हासिल कविता और उसकी छोटी सी कहानी को...!
यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही... कहीं न पहुंचना हो फिर भी चलना चाहिए, जाने कहाँ विलक्षण दृश्य... और अनमोल क्षण हमारा इंतज़ार कर रहे हों...!
काव्यात्मक यात्रा चलती रहे......................
जवाब देंहटाएंअनवरत........
चलने का नाम ही ज़िन्दगी है।
जवाब देंहटाएंयात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही... कहीं न पहुंचना हो .... फिर भी ,
जवाब देंहटाएंचलना चाहिए, जाने कहाँ विलक्षण दृश्य... और अनमोल क्षण हमारा इंतज़ार कर रहे हों...!
जीवन की सच्चाई से रुबरु करवाती रचना .... !!
चलते रहिये चलते रहिये । अनुसील पर जाते हैं कविता पढने ।
जवाब देंहटाएंआपने सही लिखा है अक्सर कई अच्छे विचार रेल या बस में आते हैं ..यात्रारत रहना ही चाहिए सो तो हम सभी हैं अपने अपने सफर में
जवाब देंहटाएंअपने पूरे जीवन पर सरसराती उसकी निगाहें सोच में डूबी हैं कि इतने वर्षों जीकर क्या उसने कुछ अलग कर लिया जो किशोरवय में मृत्यु की गोद में समा जाने वाला उसका एकलौता बड़ा भाई नहीं कर सका... वह सालों बाद अपने देश स्वीडन लौटा है... दृश्य बदल चुके हैं, कोई उसे नहीं पहचानता... किसी को उसका मृत बड़ा भाई भी याद नहीं है...!
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी जिंदगी का सफ़र ऐसा ही है न जाने क्या ताने बाने उलझन उहपोह सब कुछ सामने आता है ..अच्छे लिंक अच्छी कहानी
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण
मानता हूँ इस बात को की यात्रारत रहना ही चाहिए...मैं तो अक्सर युहीं शहर में निरुद्देश्य इधर उधर भटकता रहता हूँ :)
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंमाँ के लिए ये चार लाइन
ऊपर जिसका अंत नहीं,
उसे आसमां कहते हैं,
जहाँ में जिसका अंत नहीं,
उसे माँ कहते हैं!
****************
माँ है मंदिर मां तीर्थयात्रा है,
माँ प्रार्थना है, माँ भगवान है,
उसके बिना हम बिना माली के बगीचा हैं!
संतप्रवर श्री चन्द्रप्रभ जी
→ आपको मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं..
आपका
सवाई सिंह{आगरा }
यात्रारत रहना चाहिए, निरुद्देश्य ही सही ...जीवन यात्रा की तरह ....बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंmoral of the story: यात्रारत रहना चाहिए, निरुद्देश्य ही सही ...जीवन यात्रा की तरह ....:)) hai na!!
जवाब देंहटाएंकिस तरह मिलूँ ....
जवाब देंहटाएंक्या ! चाहिए ?
क्या, चाहिए ?
अजी क्या चाहिए,हसरतों का देकर भरोसा,
मीठे पलों को खोजने बस निकल जाइए ।
बेमेल दुनिया से नज़र तो मिलाइए ,
मुलायम पड़ रहे तेवर तो दिखाइए,
कुछ मुस्कुरा कर खामोश हो जाइए ,
रूक जाइए पर कंही खो न जाईए ।
रंगीन रातों का कर इंतजार,
उजले दिनों को न भूलाइए ।
अक्षरों की पढ़ी जो वर्णमाला,
गीत उस पर नया रचाइए ।
साजों पर नगमा सुरीला बैठाइए,
मेल स्वरों का नए रागों से कराइए ।
जिस पते से लौटा था ख़त,एक दिन
तबीअत से जरा ख़टखटाइए ।
मिल जाए जो जवाब ए रजामंद ,
फिर इकरार में सर को हिलाइए ,
सरताज अब बहुत हुआ सम पर तो आइए ।
क्या ! चाहिए ?
क्या , चाहिए ?
अजी छोड़िए ,अब चाहिए ही क्या । ...प्रदीप यादव 24/07/ 2012