सोमवार, 4 जून 2012

बहती धारा की तरह!



लिखते ही रचनात्मक सुख मिल जाता है, लिखने का कोई और अन्य उद्देश्य भी हो सकता है, इसका ज्ञान नहीं हमें या शायद कोई अन्य उद्देश्य हो भी नहीं सकता... क्यूंकि लिखना तो एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है... किसी सुन्दर दृश्य को देखने की तरह... हाँ, देखने के बाद विचार प्रस्फुटित होते हैं, मन अच्छा अनुभव करता है; वैसे ही लेखन के बाद शब्द अपना चमत्कार शुरू करते हैं...! बड़े बड़े परिवर्तन की आधारशिलायें भी तो यूँ ही रची गयीं होंगी... शब्दों से क्रांति आई होगी, किसी करुण संवाद ने रुलाया होगा, कोई कोमल अभिव्यक्ति किसी का दर्द सहला गयी होगी...! 
रचे जाने के बाद शब्द अपना उद्देश्य स्वयं ढूंढ लेते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता अलग से...

होना चाहिए सहज, बहती धारा की तरह, शेष सब होता जाता है!
*****
अपने आप से संवाद करते हुए लिखी थी ये बातें कभी... इसी संवाद का विस्तार बनी यह कविता...! कुछ उत्तर स्वयं को ही देने होते हैं, कुछ प्रश्नचिन्हों के हल ढूँढ़ना हमारे अपने लिए आवश्यक हो जाता है कभी कभी...; ऐसे ही विचार प्रवाह में लेखनी ने स्वयं खोजा जवाब मेरे लिए... और कविता बोली:

10 टिप्‍पणियां:

  1. चुप सी कलम की स्याही जांचने के लिए
    लिखते हैं हम...
    अपने ही भीतर झांकने के लिए!…………………बिल्कुल सही कहा।

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  2. सृजन का आनंद देता है लेखन, अपने आप को व्यक्त करता हुआ ।

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  3. बहुत खूब ... चुप सी कलम की स्याही जांचने के लिए ... अपने भीतर झाँकने के लिए ...
    क्या गज़ब लिखा है ..

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  4. जाही प्रभु दारुण दुःख देहि , ताकि मति पहिले हर लेही ...

    इस पंक्ति का विरोधाभास भी पद्य की सुन्दर व्याख्या कर सकता था ,
    किन्तु भाषा विकास उस काल में सकारात्मक सोच को आने वाली पीढी ,
    किसी वरदान की तरह लेगी यह आभास कविराज को जब प्रभू की भक्ति पद
    रचना की थी तब नहीं रहा होगा । वर्तमान सोच के सापेक्ष 'अनुपमा जी'
    की पंक्तियां लिखे जाने का महत्त्व और मर्म दोनों प्रतिपादित करती हैं।

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  5. जी बिलकुल सही कहा आपने..
    मई भी सहमत हूँ आपकी बात से...:-)

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  6. आत्माभिव्यक्ति की मानव-सुलभ तृष्णा - वही कलाओं के पीछे का सच खोलती है !

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  7. दिनांक 23/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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