बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

बर्फ़ीले मौसम में मखमली घास का स्मरण!


ये तारीख़ केवल एक बार आती है चार वर्षों में... चलो, कम से कम आती तो है एक निश्चित अंतराल के बाद...; जीवन में तो न निश्चितता है... न कोई एक निर्धारित अंतराल है जिसके बाद खुशियों की राह तकी जा सके! ज़िन्दगी तू ऐसी क्यूँ है?
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रास्ते में जितने कांटें हैं सबसे आहत होने को तैयार हैं हम... फूल खिलें तो सही.
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आँधियों में पेड़ गिर जाते हैं... दूब सुरक्षित ही रहती है सदा, धरती से चिपकी हुई जो है.
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बर्फ़ीले मौसम में मखमली घास का स्मरण जाने क्यूँ बड़ा मोहक लग रहा है...
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सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

यात्रा अनवरत और कलम का प्यारा साथ...!


कवितायेँ उदास होती जा रही हैं... कहीं छुप जाना चाहिए हमको... कलम तोड़ देनी चाहिए... नहीं लिखना चाहिए लेकिन फिर ये कलम भी कम कहाँ है तर्क पर उतर आती है... कहती है 'मुझे भी तोड़ दोगी तो तुम्हें कौन संभालेगा हर क्षण' और फिर एक चुप्पी; जो कहना था वह तो कह गयी वो, क्या जवाब दें? निःशब्द हैं और कलम मुस्कुरा रही है क्यूंकि वो जानती है कि तमाम तर्क वितर्क के बाद उसी की शरण में जायेंगे... टिकट ले कर यूँ ही यात्रा पर निकल जायेंगे... बस से या मेट्रो से और वहाँ भी कोई कागज़ निकाल कर कलम दौड़ाने लगेंगे... इसके सिवा उपाय भी क्या है...
हरदम बारिश थोड़े ही न होती है कि उसमें रोते हुए चले आप और कोई समझ भी न पाए, हमेशा बर्फ़ भी तो नहीं गिरती कि उसके ही कुछ कण चेहरे को यूँ ढ़क ले कि आंसू निश्चिन्तता से बह सके... इसीलिए तो होती है कलम... यूँ आंसू लिख जाती है कि एक सुकून मिलता है इस बात का कि दर्द व्यर्थ नहीं गया... लिखे हुए शब्द ऐसी ही व्यथा से जूझ रहे किसी व्यक्ति का सहारा बन जायेंगे... अगर उसकी नज़र से यूँ ही गुज़र गए तो! होता है न ऐसा कि कई बार कितना कुछ पढ़ते हुए अनायास लगता है जैसे मेरी ही बात हो रही हो... मेरा ही दर्द लिखा गया हो... फिर जो सांत्वना मिलती है यह वही समझ सकता है जो कभी न कभी ऐसे अनुभव से गुज़रा हो...!
दर्द ही तो है वो तत्व जो जोड़ता है सभी को... सुख में तो हमने वो ताकत नहीं देखी अबतक. फिर कलम समझाती है हमें... 'अरे तू इतना न सोचा कर... जानती है, ये लिखा हुआ तेरे कई बिछड़े हुए मित्रों को बड़ा सुकून देता है...!'
सच कहती है कलम, अभी कल ही तो वह कह रहा था कि मेरी कविताओं को गुनगुनाते हुए कई पड़ाव पार कर लिए उसने... वर्षों बाद मिलने वाले स्कूल के मित्रों को भी अब तक याद है मेरी कवितायेँ... कलम टूट जाती थी तो कलम ही भेंट करने वाले कितने मित्र याद हो आते हैं...
हाँ लेखनी! हमें तुम्हारी बात मान लेनी चाहिए. चलो हम दोनों अब थोड़ा हंस लें, इससे पहले कि कोई परेशानी फिर दस्तक दे दरवाज़े पर:)

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

आंसू उकेरते हुए...


जीवन की आपाधापी में जीवन बिना जिए ही बीत जाता है... ये कैसे होता है कि मुट्ठी बांधते रह जाते हैं और रेत सी फिसल जाती है हाथों से समस्त जिए अनजिए पलों की दास्तान. लिखना होता होगा सहेजना पर इस लिखने की अनिवार्यता के पीछे जो दर्द होता है वह तो फिर भी अनचीन्हा ही रह जाता है... शब्द एक मात्र माध्यम हैं अभिव्यक्ति के पर यह माध्यम कभी कभी बहुत अपर्याप्त भी होता है, है न?
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मृत्यु की अनिवार्यता जीवन का ही एक पहलू है, तभी तो श्मशान से लौटते हुए भी जीवन की किलकारियां झूठी नहीं लगतीं... देखो, कहीं जीवन और मृत्यु किसी अनजान क्षितिज पर एकाकार तो नहीं हो गए?
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बहुत धुंधली सी एक स्मृति... और उनके चले जाने के बाद और गहराती हुई क्यूंकि वही एक स्मृति उस व्यक्तित्व की एक मात्र पहचान थी मेरे लिए... बुआ, मुक्त हो गयीं न आप? ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे!
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बहुत कम अवधि हेतु होता है यहाँ आना... मिलजुल लेना चाहिए समय रहते सब अपनों से... बना लेना चाहिए अपना सभी बेगानों को... जाने से पहले इतना तो कर ही लेना चाहिए: शेष कुछ भी नहीं रह जाता.
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किसी की विदाई की ख़बर से रोता तो है दिल... दिल जानता है कि एक दिन हमेशा के लिए हमें भी विदा हो जाना है.
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आंसू के धार से मिल कर निकल पड़ी एक और धारा जो धरा को क्षितिज से जोड़ देगी...!
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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

हम राहों को नहीं चुनते, राहें हमें चुन लेती हैं...!


कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम राहों को नहीं चुनते, राहें हमें चुन लेती हैं...! हम सपने कुछ और देखते हैं, होता कुछ और है... सारा जीवन ही इस आँख मिचौनी का खेल है. बचपन में यह खेल खेल कर तो हमने भुला दिया पर ज़िन्दगी ये खेल हमेशा हमारे साथ खेलती रहती है. हम चाहते कुछ है, होता कुछ है; कई बातें तर्क की सीमा से परे होती हैं... कुछ निर्णय नियति भी लेती है हमारे लिए. अब हमेशा कविताओं से भागने के बाद आज एक कविता ही है जो मेरे पास बची है... भुलाने, बिसराने, खो दिए जाने के बावजूद... एक वह ही है जो बचपन से अब तक साथ है. विज्ञान की पढ़ाई करते रहे और कविता साथ चलती रही... यहाँ आये तो समय के सदुपयोग हेतु स्वीडिश भाषा की पढ़ाई शुरू कर दी... फिर भी निराश ही रहे हमेशा, अब संतोष है... इस भाषा के कवियों को पढ़ने का अवसर हमें कहाँ मिलता अगर सोचे अनुसार आते ही यहाँ Bio-Informatics में शोध हेतु प्रवेश मिल गया होता..., भाषा सीखी मजबूरी में लेकिन आज बढ़िया लग रहा है, कोई शिकायत नहीं है तुमसे स्टॉक होम:) कविता है न मेरे साथ, हर निराशा को आशा में बदलने के लिए... अब नज़र का ही तो फर्क होता है... है न?
अभी मेरे हाथों में एक किताब है... De Bästa Svenska Dikterna Från Stiernhelm till Aspenström. अब बहुत सारे 'अगर मगर', 'ऐसा होता तो कितना अच्छा होता' जैसे भावों को अलग कर इसके पन्नों के बीच घूमते हैं... देखें तो कवितायेँ कौन से सितारे टाँकती है मेरे सूने अम्बर पर आज...!

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

बस कुछ एक बूँद स्नेह की बारिश और आशा की किरणें!


जब हम बहुत उदास होते हैं, तो रोते तो हैं ही पर अक्सर ऐसा भी होता है कि उदासी की एक सीमा का अतिक्रमण होने के बाद केवल आंसू पर्याप्त नहीं होते... तब और भी कुछ ऐसी अदृश्य शक्ति चाहिए होती है जो निराशा के घोर अन्धकार में किरण बन सके और जीने की कोशिश ज़ारी रह पाए.
हमें याद है पढ़ाई के दौरान जब बनारस में थे, तो बहुत सारा समय बीतता था मंदिर में... अब वो सेंट्रल लाईब्रेरी हो, उसके बगल में स्थित विश्वनाथ मंदिर हो, संकटमोचन हो या फिर तुलसी मानस मंदिर. सेंट्रल लाईब्रेरी को भी मंदिर ही मानते थे हम, सबसे अधिक समय भी यहीं बीता! संकटमोचन में भीड़ बहुत रहती थी... हमेशा भक्तों का ताँता लगा रहता था, मंगलवार को तो विशेष रूप से, लेकिन हमें याद है उस भीड़ में भी एक एकांत हमें हमेशा मिला वहां, जहां बैठ कर कितने ही पाठ किये... कितने ही मौन आंसू रोये. तुलसी मानस मंदिर की बात ही अलग थी... वहाँ जाते थे तो घूम घूम कर दीवारों को पढ़ते रहते थे, सम्पूर्ण रामचरित मानस मंदिर की दीवारों पर अंकित जो है. विश्वनाथ मंदिर के साथ तो कितना कुछ जुड़ा है... विस्तार से लिखेंगे कभी स्मृति के गलियारे में झांकते हुए. उदास होने पर जाने को कई जगह ढूढ़ रखा था हमने वहां, ऐसे कई स्तम्भ थे जिनसे टिक कर बैठ रोया जा सकता था... तभी तो तमाम परेशानियों के बावजूद इतने समय तक हम रह पाए वहाँ.
यहाँ स्टॉक होम में एक स्थान है जहां ऐसी मनोदशा में अक्सर पाँव चल पड़ते हैं... बिब्लिओतेक (लाईब्रेरी)! ढ़ेर सारी किताबों के बीच घूमते हुए उदासी को भुला देने का उपक्रम चलता रहता है और बहुत सारी किताबें चुन कर ले आते हैं..., ये जानते हुए भी कि समयाभाव के कारण सब पढ़ नहीं पायेंगे! ये चलता रहता है और ऐसी कई किताबें हैं जो उठा लाये और बिना पढ़े लौटा भी आये नियत दिन पर... लेकिन ऐसी भी कई किताबें हैं जिन्हें पढ़ा और खूब पढ़ा. फिर, ये सोच कर अपनी उदासी का आभार भी माना कि अगर वह न होती तो उन किताबों से भी परिचय नहीं हुआ होता. ऐसी ही किसी उदास शाम को स्वीडिश कविताओं की किताब मेरे हाथ लगी... और हमने ये सोच कर उनका अनुवाद आरम्भ किया कि इस तरह इस भाषा को पढ़ते हुए इस भाषा की कविताओं से परिचित होना और उन्हें अपनी भाषा में संकलित कर लेना बड़ा बढ़िया रहेगा...; सचमुच ये एक साझे क्षितिज पर खिलने वाले बाल अरुण की लालिमा थी जिसने हमें प्रेरित ही नहीं बल्कि भावविभोर भी किया...!
आज मित्र शायक आलोक के विचार इन अनुदित कविताओं के विषय में पढ़कर सचमुच चमत्कृत हुए... उनके नोट को सहेज लेने का मोह बिसार नहीं पा रहे, इसलिए यहाँ इसे सुरक्षित रख ले रहे हैं अपने लिए:) भविष्य में किसी निराश क्षण में ये शब्द गति देंगे मेरे क़दमों को...

Shayak's note

"एक मोड़ आएगा ऐसा/जब ज़िन्दगी अलविदा कहेगी/पर उसके पहले कटिबद्ध है वह/क्षण दर क्षण साथ रहेगी (अनुपमा पाठक) ....
अनुपमा की अपनी एक दुनिया है...एक ऐसी दुनिया जहाँ जहाँ दो अलग अलग दुनिया सिमट कर एक हो जाती है ....एक पदचिन्ह उसका पीछा करती है दूसरी उसके आगे आगे चलती है ...स्वीडन में रहने वाली अनुपमा जब अपनी पसंदीदा स्वीडिश कविताओं को बुदबुदाती है तो अर्थ एक नया आकार ग्रहण कर लेता है और वहीँ दो दुनिया का एक साझा क्षितिज उभर कर अपना अस्तित्व ग्रहण करता है ..क्षितिज के उसी चिर परिचित खूंटे से अपनी अनुभूतियों को शब्दों की रस्सी से बाँध फिर अनुपमा एक नया अहसास बुन देती हैं... (शायक आलोक )
(अनुवाद: अनुपमा पाठक)
हेनरी पर्लैंड की एक और कविता
कल
जब मैं घर गया
अँधेरी सड़क से रात में,
चमका आसमान से
शब्द
जिसे मैंने बहुत पहले ही जला दिया था.
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क्या अब मुझे आसमान भी जला देना चाहिए?
बेन्ग्त अन्देर्बेरी की एक कविता
जून के महीने में होना चाहता हूँ
हल्के भूरे रंग के पंखों वाला भारव्दाज़ पक्षी,
देवदार वृक्ष अन्धकार के आगमन पर,
त्याग देना चाहता हूँ अपनी गति,
बन जाना चाहता हूँ छछूंदर
और दुनिया के अंधकारपूर्ण समय में
आराम करना चाहता हूँ , जंगली पक्षियों के झुंड की तरह,
जीवन के बाहर
धरती के तल में अपने सुनहरे रेतीले प्रवास पर.
बिर्गिता रुदेस्कोग की एक कविता
लक्ष्य तक पहुँचने के लिए
अक्सर मुझे यात्रा करनी चाहिए
पीछे प्रारंभिक बिंदु तक
और हर बार अंततः आगे पहुंचकर
हमेशा वापस सोचना चाहिए
बरब्रो लिन्द्ग्रें की एक कविता
एक न एक दिन हम सब मर जायेंगे
तुम और मैं
सभी कमज़ोर इंसान मर जायेंगे
और सभी जानवर
और सभी पेड़ मर जायेंगे
और धरा पर खिले फूल भी
लेकिन
एक ही बार में नहीं
बल्कि कभी कभार अलग अलग समय पर
ताकि उसपर शायद ही ध्यान जाए!
मार्गारेता लिथें की एक कविता
रेल मुड़ती है
अचानक दिखता है मुझे
मेरा निकट भविष्य
तिरछे झांकता हुआ पीछे से. "
ये सब लिखने के लिए शायक ने मेरी कवितायेँ पढ़ीं, अनुवाद पढ़े और अपना स्नेह दे कर क्षितिज ही नहीं वह धरातल भी आलोकित कर दिया जहां हम फिलहाल खड़े हैं अभी. बस कुछ एक संदेशों का परिचय और यह आत्मीयता! धन्यवाद शायक:)
मनोज पटेल जी का मार्गदर्शन भी मिला और यह कोना (http://svenskpoesianusheel.blogspot.com/)कुछ कुछ सज गया जैसा उसे होना चाहिए शायद, मॉलिन डालस्ट्रोम (मेरी शिक्षिका) की प्रेरणा भी बहुत सहायक रही इस कार्य को आरम्भ करने में...! इन महत श्रेयों के लिए शब्दों में आभार कैसे व्यक्त किया जाता है... यह हमें ठीक से नहीं आता.
कहते हैं, प्रारंभ हो जाए किसी कार्य का तो दिशा मिलती जाती है... दिशा मिलती जाए और निरंतरता बनी रहे. और क्या चाहिए नीले अम्बर से हमें- बस कुछ एक बूँद स्नेह की बारिश और आशा की किरणें!

बूंदों की बात ही निराली है...!



आज मेरा मन है कि केवल उजला ही उजला लिखा जाए...
बर्फ ज़मी हुई हो पूरी धरती पर, धरती क्या पानी भी ज़मा हुआ हो जैसा इस तस्वीर में है. पूरी की पूरी जलराशि ही बर्फीली है; कभी कभी बहता पानी भी ठोस हो जाता है... होते हैं ऐसे भी मौसम जब पानी पर चल सकना संभव हो जाता है. आखिर पानी के रूप भी तो कितने हैं... कभी रिमझिम बूंदें है पानी, कभी रुई के फ़ाहों की तरह गिरती बर्फ़ीली बारिश है पानी, कभी आँखों में लहराता समंदर है पानी और हरे पत्तों पर सजा ओस भी तो पानी ही है. इन सभी रूपों से मेरी पहचान है, कुछ से तो बड़ी ही गहरी!
आँखों में लहराते समंदर को छिपाया नहीं जा सकता, लेकिन अगर छिपाने की कोशिश करनी हो तो बारिश में भींगना चाहिए... आसमान से टपकते ढ़ेर सारे अश्रुबून्दों के समक्ष कुछ एक बूंदें आँखों की खो जायेंगी और यह एहसास भी हो जाएगा कि वृहद् कारण होते हैं बारिशों के, अपने छोटे छोटे कारणों के लिए बरसना... आँखों को शोभा नहीं देता.
ओस की बूंदें चुनते हुए हमेशा लगता है कि रात भर ये पत्ता रोया होगा क्यूंकि इसे पता है कि इसकी नियति क्या है... जहां है उस डाल से इसका कुछ क्षण का ही नाता है, सूख जाएगा... टूट जाएगा और हवा कहीं और उड़ा ले जायेगी; जाने क्यूँ ओस की बूंदें भी आंसू ही लगती हैं, कौन जाने... हो भी!
वो कहते हैं न, आँखें कुछ भी वैसा नहीं देखतीं जैसा कि वो होता है. अक्सर मन में उमड़ घुमड़ रही बातों का अक्स ही दृष्टि देखती है सभी अव्ययों में.
नीले अम्बर के नीचे अगर सुकून है तो शायद इन आंसुओं में ही है... बूंदों की बात ही निराली है, इन्द्रधनुष भी तो आखिर एक बूँद की ही कलाकारी है!

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

नीला अम्बर...!




नीला अम्बर...! अम्बर तो नीला ही होता है, इसमें अम्बर को नीला क्यूँ लिखना... और ये नया कोना ही क्यूँ बनाना जिसे नीला अम्बर कहा जाए... इसी प्रश्न से आरम्भ किया जाए. प्रश्नों के उत्तर तलाशते हुए ही तो कितने तहों में सुलझ जाती है उलझनें और सब कुछ करीने से सज जाता है.
तो, शुरुआत करते हैं अम्बर को नीला कहने से... नीला इसलिए कि अम्बर के कई रंग होते हैं, कभी वह बादलों से भरा काला भी तो होता है और कभी मन के भाव के अनुसार कोई भी रंग लिए हुए हो सकता है... नीला इसलिए कह रहे हैं क्यूंकि शायद नीला ही उसका असल रंग है... सृष्टि भी तो नीले रंग का ही विस्तार है न.
अब दूसरा प्रश्न- ये नीला अम्बर क्यूँ? तो, ये इसलिए कि जो कुछ भी लिखेंगे यहाँ वह येन-केन-प्रकारेन नीले अम्बर के नीचे ही घटित हुआ होगा... और नीला अम्बर हर उस एहसास का साक्षी होगा जो भीतर घर किये हुए है... हंसाते रुलाते संग चल रहा है! अब वह मेरा अपना जमशेदपुर हो, वहां से जुड़ी बातें हों, बनारस हो... जहां ६ वर्षों तक रहना हुआ, या फिर अब यहाँ स्टॉक होम हो, जहां २ वर्षों से हैं- सब जगहों में एक बात कॉमन है और वह यह कि सब जगहों से दीखने वाला नीला अम्बर एक ही है.
एक रोज़ यूँ ही अनुशील पर लिखना आरम्भ किया था... कई भूली बिसरी कवितायेँ सहेजीं, लिखते भी जा रहे हैं, जो जो लेखनी लिखती जा रही है; आज सोचा इन कविताओं से जुड़ी कहानियां भी अपने लिए लिख रखी जाएँ... तो नीले अम्बर ने हमसे कहा- 'आओ लिखो यहाँ... जो मन में आये सो, मैं हूँ तुम्हें सहेजने की खातिर ', इतना सुनना था कि उद्धत हो गयी कलम और कागजों से निकल कर कुछ सहज ही यहाँ अंकित होने लगा. हमने भी बीच में आना उचित नहीं समझा... अब ये है- हम और हमारा नीला अम्बर- अम्बर, जो कभी बरसेगा भी... कभी तरसेगा भी... और कभी टकटकी लगाए शून्य से शून्य को निहारेगा भी!