गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

बूंदों की बात ही निराली है...!



आज मेरा मन है कि केवल उजला ही उजला लिखा जाए...
बर्फ ज़मी हुई हो पूरी धरती पर, धरती क्या पानी भी ज़मा हुआ हो जैसा इस तस्वीर में है. पूरी की पूरी जलराशि ही बर्फीली है; कभी कभी बहता पानी भी ठोस हो जाता है... होते हैं ऐसे भी मौसम जब पानी पर चल सकना संभव हो जाता है. आखिर पानी के रूप भी तो कितने हैं... कभी रिमझिम बूंदें है पानी, कभी रुई के फ़ाहों की तरह गिरती बर्फ़ीली बारिश है पानी, कभी आँखों में लहराता समंदर है पानी और हरे पत्तों पर सजा ओस भी तो पानी ही है. इन सभी रूपों से मेरी पहचान है, कुछ से तो बड़ी ही गहरी!
आँखों में लहराते समंदर को छिपाया नहीं जा सकता, लेकिन अगर छिपाने की कोशिश करनी हो तो बारिश में भींगना चाहिए... आसमान से टपकते ढ़ेर सारे अश्रुबून्दों के समक्ष कुछ एक बूंदें आँखों की खो जायेंगी और यह एहसास भी हो जाएगा कि वृहद् कारण होते हैं बारिशों के, अपने छोटे छोटे कारणों के लिए बरसना... आँखों को शोभा नहीं देता.
ओस की बूंदें चुनते हुए हमेशा लगता है कि रात भर ये पत्ता रोया होगा क्यूंकि इसे पता है कि इसकी नियति क्या है... जहां है उस डाल से इसका कुछ क्षण का ही नाता है, सूख जाएगा... टूट जाएगा और हवा कहीं और उड़ा ले जायेगी; जाने क्यूँ ओस की बूंदें भी आंसू ही लगती हैं, कौन जाने... हो भी!
वो कहते हैं न, आँखें कुछ भी वैसा नहीं देखतीं जैसा कि वो होता है. अक्सर मन में उमड़ घुमड़ रही बातों का अक्स ही दृष्टि देखती है सभी अव्ययों में.
नीले अम्बर के नीचे अगर सुकून है तो शायद इन आंसुओं में ही है... बूंदों की बात ही निराली है, इन्द्रधनुष भी तो आखिर एक बूँद की ही कलाकारी है!

1 टिप्पणी:

  1. इन्द्रधनुष भी तो आखिर एक बूँद की ही कलाकारी है!..बहुत सुंदर ! जब भाव घने हो जाते हैं तो बूंद बनकर बरस पड़ते हैं...

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