बुधवार, 27 जून 2012

ज़िन्दा होने का प्रमाण!


कई क़िताबें ले आती हूँ, पर उनमे से कई पढ़ नहीं पाती... समय का अभाव, व्यस्तता और पाठ्य पुस्तकों से अवकाश ले कर ही मुड़ा जा सकता है इनकी ओर...!
दो दिन पूर्व लाइब्रेरी से यह (Please look after mother/Kyung-Sook Shin) पुस्तक लायी और आरम्भ किया तो पढ़ भी गयी कुछ घंटों में...; यह एक कोरियन उपन्यास है... कहानी एक माँ के इर्द गिर्द घूमती है, उसका जीवन, उसकी त्याग तपस्या, उसकी अहमियत सब एक दिन उसके खो जाने के बाद रेखंकित होते हैं परिवार के सदस्यों की यादों में..., वह अपने पति और पांच बच्चों के जीवन का अहम हिस्सा रही पर कोई उसे उसके रहते समझ नहीं पाया... एक दिन स्टेशन पर उसका खो जाना और उसे ढूँढने के लिए किये गए असफल उपक्रमों के बीच बढ़ती हुई कहानी सभी परिवारजनों को खालीपन से भर जाती है; अपनी कृतघ्नता का अहसास प्रबलता से महसूस करते हैं सभी. उनकी स्मृतियों से बनती जाती है माँ की तस्वीर, उसके रहते उसके बारे में जो नहीं सोचा समझा वह सब सोचने, समझने, करने को उत्कट हैं सभी पर माँ है कि खो चुकी है...! पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे यह सांकेतिक रूप से हर माँ की कथा है..., अनचीन्हा ही रह जाता है उसका अस्तित्व; वह इस तरह प्रस्तुत रहती है हमारे लिए कि उसके होने की महत्ता हम आजीवन नहीं जान पाते...!
माँ ही क्यूँ, ये तो स्वभावतः हर तत्व, हर रिश्ते के साथ होता है... हम जीवन को भी तो बस काटते चले जाते हैं, जीने के महत्त्व से अनभिज्ञ; जब खोने को होता है सबकुछ तब एहसास होता है कि यूँ ही गँवा दिया जिसे, वह जीवन कितना अनमोल था, कितना सुगढ़ सुन्दर हो सकता था हमारी ज़रा सी पहल से!
खो देने पर ही क्यूँ एहसास हो किसी के महत्त्व का... चाहे वह समय हो, रिश्ते हों या व्यक्ति विशेष हो...? कितना कुछ है जिसके लिए प्रतिपल हमें आभारी होना चाहिए, मात्र वाणी से ही नहीं, अपनी संवेदनशीलता और अपने कर्मों से भी... इस बात का आभास रहेगा तो व्यक्त भी होगा, व्यस्त जीवन की कुछ घड़ियाँ अनायास समर्पित भी होंगी... प्रकृति को, समाज को, परिवार को और यही घड़ियाँ जीवन का असल हासिल होंगी!
समय रहते मूल्य पहचानना सीखें हम, तभी मिल सकेगा हमारे ज़िन्दा होने का प्रमाण!

सोमवार, 4 जून 2012

बहती धारा की तरह!



लिखते ही रचनात्मक सुख मिल जाता है, लिखने का कोई और अन्य उद्देश्य भी हो सकता है, इसका ज्ञान नहीं हमें या शायद कोई अन्य उद्देश्य हो भी नहीं सकता... क्यूंकि लिखना तो एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है... किसी सुन्दर दृश्य को देखने की तरह... हाँ, देखने के बाद विचार प्रस्फुटित होते हैं, मन अच्छा अनुभव करता है; वैसे ही लेखन के बाद शब्द अपना चमत्कार शुरू करते हैं...! बड़े बड़े परिवर्तन की आधारशिलायें भी तो यूँ ही रची गयीं होंगी... शब्दों से क्रांति आई होगी, किसी करुण संवाद ने रुलाया होगा, कोई कोमल अभिव्यक्ति किसी का दर्द सहला गयी होगी...! 
रचे जाने के बाद शब्द अपना उद्देश्य स्वयं ढूंढ लेते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता अलग से...

होना चाहिए सहज, बहती धारा की तरह, शेष सब होता जाता है!
*****
अपने आप से संवाद करते हुए लिखी थी ये बातें कभी... इसी संवाद का विस्तार बनी यह कविता...! कुछ उत्तर स्वयं को ही देने होते हैं, कुछ प्रश्नचिन्हों के हल ढूँढ़ना हमारे अपने लिए आवश्यक हो जाता है कभी कभी...; ऐसे ही विचार प्रवाह में लेखनी ने स्वयं खोजा जवाब मेरे लिए... और कविता बोली:

बुधवार, 30 मई 2012

ये लौटना कितना सुखद होगा न!


वो बचपन की यादों में छूट गयी थी पर यहाँ स्टॉक होम आकर उससे जैसे एक नयी पहचान हो गयी... अब पेंसिल उसी तरह मेरे साथ है जैसे उन दिनों हुआ करती होगी जब लिखना शुरू किया होगा.
थर्ड स्टैंडर्ड तक पेंसिल से लिखने के बाद फाउनटेन पेन पकड़ने की ख़ुशी याद है... कलम में स्याही भरना मानों जीवन में उमंग भरने सा था उन दिनों... कलम पकड़ने का एहसास बड़े हो जाने का एहसास था... तब हमारे स्कूल में डॉट पेन से लिखना वर्जित था हमारे लिए, तीन चार साल इंक पेन से लिखने के बाद ही डॉट पेन से लिखने की अनुमति मिलती थी... ये एक नियम सा था; कहते हैं, इंक पेन से लिखने पर लिखावट अच्छी बनती है और एक बार अभ्यास हो जाए तब डॉट पेन से लिखना शुरू किया जा सकता है... यही कुछ उद्देश्य रहा होगा! जीवन का फलसफा भी तो कुछ ऐसा ही है, पहले लड़खड़ाते हुए चलना सीख लो फिर तो दौड़ने को लम्बी राह है... शुरू शुरू में इंक पेन से लिखना भी तो लड़खड़ाने जैसा ही था... कभी इंक लिक कर जाती थी, कभी लिखने का सलीका न होने के कारण निब से कागज़ ही फट जाते थे, फिर धीरे धीरे सब सामान्य हो गया... वैसे ही जैसे अब गिरने के बाद संभल जाना ज़िन्दगी सीखा देती है!
अब ठीक ठीक याद नहीं कि कब इंक पेन से डॉट पेन पर आये, संभवतः सेवेंथ या ऐट्थ स्टैंडर्ड रहा होगा...; और फिर उसके बाद फाउनटेन पेन धीरे धीरे दूर होता गया, डॉट पेन की गति साथ हो गयी...! बस कभी कभी शौक से लिखने के लिए फाउनटेन पेन साथ रहा, कई रंगों की स्याही से परिपूर्ण...; इम्तहानों की भागमभाग में डॉट पेन ने हमेशा साथ निभाया... लम्बा सफ़र तय किया इसके साथ... बहुत सारी कलम संभाल कर रखी है, कई यादें हैं उनके साथ जुडी हुईं...!
फिर समय बीता, वक़्त ने करवट ली और पहुँच गए अपने देश से इतनी दूर... यहाँ पढ़ाई शुरू की तो देखा कि सामान्यतः सभी पेंसिल से ही लिखते हैं... शिक्षक भी, विद्यार्थी भी...! शुरू शुरू में अटपटा लगता था... पर अब दो वर्षों में सारा लिखना पढ़ना इस तरह हुआ पेंसिल से कि अब लगता है कलम से लिखा ही नहीं हो कभी...; पेंसिल से लिखने का अपना ही मज़ा है, कितना आसान है हर गलती को इरेज़ कर देना पेंसिल से लिखते हुए...! मेरे पास कई तरह की पेंसिल है अब... जैसे कभी कई तरह की कलम हुआ करती थी.
पेंसिल की बात करते हुए लौटने की बात से जुड़ी कई भावनाएं उमड़ घुमड़ रही हैं... देख रहे हैं कि एक बादल है जो लौट रहा है वापस समुद्र में, लहरें भी फिर फिर लौट रही हैं सागर में, ये सामान्य रूप से चल रहा है... चलता है, फिर क्यूँ नहीं लौट पाते हम? आगे की राह क्यूँ यूँ उलझाये रखती है कि हम उस पुल के उपकार को अक्सर भूल जाते हैं जिसे पार कर आगे आये हैं...!
वापस लौटना मुमकिन नहीं होता... जीवन आगे जो भागता रहता है, पर यही जीवन कभी कभी कुछ खोयी हुई चीज़ें लौटा भी देता है..., खोये हुए पल, खोयी हुई खुशियाँ, खोयी हुई जडें, खोया हुआ सुकून, खो चूका भोलापन, और कभी-कभी खो चुकी यादें भी! जीवन है न... जाने क्या क्या आश्चर्य छुपाये है हर पल अपने भीतर...! गुल्लक में जमा हो रही उम्मीदों का पूरा पूरा हिसाब देती है ज़िन्दगी... कहाँ का बिछड़ा हुआ कोई कहाँ कैसे मिल जाएगा ये तो अज्ञात है... जब तक घटित न हो तब तक असंभव सा ही जान पड़ता है... पर ज़िन्दगी ही कहती है न कि असंभव कुछ भी नहीं...!
अपने छोटे से वृत्त में हर आश्चर्य, हर सम्भावना, हर मिठास को साथ लेकर चलता है जीवन...., समय और स्थिति के अनुरूप प्रकट हो चकित कर देती है पूर्ण सौन्दर्य के साथ काँटों के बीच खिली एक कली...!
पेंसिल का लौटना सुखद है... यूँ ही कभी हम सबका भी लौटना हो वहाँ, जहां से हम हो कर आ चुके हैं कोई एक बीज रोप कर, जिससे लौट कर देख सकें बीज का सुखद अंकुरण...! ये लौटना कितना सुखद होगा... नयी उर्जा से परिपूर्ण कर देगा फिर आने वाली राह में हम दुगुने उत्साह के साथ शुभ संकल्पों के बीज बोते हुए बढ़ेंगे और इस तरह एक दिन धरती स्वर्ग सी हो जायेगी... हरियाली की चादर ओढ़ कर गाएगी... उन दिनों में लौट जायेगी जब उसने नया नया जन्म लिया होगा, बेहद सुन्दर और सहज रही होगी... ये लौटना कितना सुखद होगा न धरती के लिए... हमारे लिए... हम सबके लिए!

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही...!


छुट्टी है तो क्या... घर पर नहीं बैठना हमें... यूँ ही इधर उधर भटकता रहे मन... उलझे रहे अकेले-अकेले दिन भर, उससे अच्छा है चलो ट्रेन से एक अच्छी भली यात्रा पर... किताब ले लेते हैं, कुछ पढ़ाई भी हो जायेगी और घर (भारत) भले नहीं जाना है अभी... तो क्या हुआ? अर्लांडा एअरपोर्ट के दर्शन ही कर आते हैं... यही सब सोच कर निकले थे उस दिन घर से.
अच्छा ही किया..., ट्रेन चल रही थी और हम स्थिर थे तो कुछ पन्ने पढ़ डाले... कुछ कुछ निश्चिंत भी हुए कि डेड लाईन से पहले ठीक ठीक समाप्त कर लेंगे ये असाइंमेंट...! ट्रेन चल रही थी... हमेशा तो बीच में ही गंतव्य आ जाता था... इसलिए इतनी दूरी तक आने का कभी अवसर हुआ नहीं... शायद स्टॉक होम उतरने के बाद अर्लांडा एअरपोर्ट से हुडिंगे तक आये थे तभी इस राह को देखा होगा २००९ अगस्त में फिर कहाँ इधर आना हुआ... अब तो उस दिन निकले ही थे अंतिम स्टेशन तक जाने की खातिर सो कोई हड़बड़ी नहीं थी... अंतिम स्टेशन तक जाना है इसलिए एक निश्चिन्तता सी थी...
दृश्य बदल रहे थे... रूकती थी और पल में पड़ावों को पीछे छोड़ बढ़ जाती थी ट्रेन! पन्ने पलटते हुए किताब के दृश्य भी परिवर्तित हो रहे थे... उपन्यास का मुख्यपात्र जीवन के अंतिम पलों में खिड़की से झांकता हुआ अपने जीवन का आकलन कर रहा है... पचास सालों के बाद अपने देश की धरती पर लौट कर अपने मृत भाई से जुदा हो कर भी कभी न जुदा हुए सामीप्य का अनुभव करता है... अपने पूरे जीवन पर सरसराती उसकी निगाहें सोच में डूबी हैं कि इतने वर्षों जीकर क्या उसने कुछ अलग कर लिया जो किशोरवय में मृत्यु की गोद में समा जाने वाला उसका एकलौता बड़ा भाई नहीं कर सका... वह सालों बाद अपने देश स्वीडन लौटा है... दृश्य बदल चुके हैं, कोई उसे नहीं पहचानता... किसी को उसका मृत बड़ा भाई भी याद नहीं है...!
अभी भी काफी पन्ने शेष हैं विल्हेल्म मोबेरी द्वारा लिखित नोवेल 'Din stund på jorden' के (धरती पर तुम्हारा समयकाल). आशा है ऐसी ही एक दो और निरुद्देश्य यात्राओं में ये किताब पढ़ लेंगे हम! इस किताब की बात फिर कभी...
अब दृश्य कुछ अलग से थे बाहर... शहर से दूर... निर्जन लेकिन बहुत सुन्दर भी..., सोचने लगे कि भारत जाने के लिए जब अर्लांडा एअरपोर्ट तक की यात्रा करेंगे हम तो कितना अच्छा लगेगा... लेकिन फिर इस कल्पना से मन को खींच लिया...! अभी जब जाना नहीं है तो इतना कुछ सोच कर मन को कष्ट देना ठीक नहीं...
अब मन शून्य आकाश की तरफ देख रहा था... कुछ कवितायेँ भीतर बह रही थीं... कुछ एक भीतर बहती बूँदें आँखों तक आयीं तो एक कविता जैसा कुछ स्वमेव लिख गया बुकमार्क की तरह इस्तमाल किये जा रहे कागज़ के टुकड़े पर... अनायास इस बेमतलब की यात्रा का हासिल बन गयी कविता!
उस कविता को अनुशील पर लिख दिया... अब कागज़ के टुकड़े पर से तो खो ही जाता न वो... और खो जाती ये कहानी भी मन के किसी अँधेरे से कोने में इसलिए लिख दी यह कहानी भी यहाँ...!
अभी कुछ एक रोज़ पहले कविताओं की कहानी लिखने की बात कही थी... व्यस्तताओं ने अवसर ही नहीं दिया... तो आज इसी कड़ी की शुरुवात मान लें एक निरुद्देश्य यात्रा का हासिल कविता और उसकी छोटी सी कहानी को...!

यात्रारत रहना ही चाहिए... निरुद्देश्य ही सही... कहीं न पहुंचना हो फिर भी चलना चाहिए, जाने कहाँ विलक्षण दृश्य... और अनमोल क्षण हमारा इंतज़ार कर रहे हों...!

फिर सब अच्छा ही होगा!!!


श्वेत श्याम तस्वीर लिए सुबह खड़ी थी... पूरब दिशा में कोई लाली नहीं, कहीं पर नीले रंग की सुषमा नहीं... आकाश काला पड़ा था और धरती सफ़ेद... बर्फ़ से पटी हुई. हवाओं में लहराते बर्फ़ के फाहों को अपने दामन में समेट जैसे ठूंठ पेड़ अपने श्रृंगार का सामान जुटा रहे थे... और गर्मी का मौसम आते आते जैसे राहों में ठिठक गया था कहीं और...! दृश्य बदलते देर नहीं लगती... अब रात ही को तो नीले अम्बर पर चाँद खिला था, सुबह चाँद को तो चले ही जाना था पर नीला अम्बर भी अपना रूप परिवर्तित किये था... मानों चन्द्र वियोग में काला पड़ गया हो और धरा को भी जिद्द वश हरेपन की और बढ़ने से रोक रहा हो, बरस बरस कर एक उजली चादर मानों डाल दी पृथ्वी पर और श्वेत श्याम करके सबकुछ निश्चिंत बैठ गया हो... भला क्या बैर है रंगों से गगन को!!!
उदास होता है जब मन तो रंग, रंग नहीं दीखते... सब विदा हो जाता है आँखों के वृत्त से; अब आसमान उदास होगा तो ऐसा ही कुछ होगा न... उसके वृत्त में रंगों का प्रवेश निषेध हुआ तो धरा को रंग कहाँ से मिलेंगे...? अद्भुत दृश्य सृजित करने वाली बर्फ़ के फाहों की बारिश एक समय के बाद मातमी भी लगती है...! असमय ऐसा क्यूँ....?.... ये तो अप्रैल का महिना है... हरे रंग के विस्तार को देखने को आतुर हैं नयन... रंग बिरंगे फूलों के अवतरित होने की घड़ी है... ऐसे में अपनी सारी दिव्यता के साथ भी आएगी तो प्रभावित नहीं कर पाएगी बर्फ़ीली बारिश...! मखमली घास को छू कर लौटा मन उनके बर्फ़ से आच्छादित होने की कल्पना कर ही सिहर उठता है...
ये तो है हमारा सोचना विचारना हुआ... अब प्रकृति के खेल तो उतने ही निराले हैं... कौन जाने वो क्या सोचती है? कल और आज की सुबह लगता है मानों दो भिन्न मौसम की सुबहें हों... कल था अँधेरा, बर्फ़ ऐसे पड़ रही थी जैसे दिसंबर-जनवरी का महिना हो और अभी यूँ धूप खिली है मानों वो श्वेत श्याम सुबह महीनों पूर्व की बात हो... पेड़ खुश हैं... खिड़कियाँ धूप के आने को राह बना रही हैं और धूप में नाचती किरणें उछलती कूदती कह रही है- 'जाओ देख आओ मखमली घास को... रंग और न निखर आया हो तो कहना!'
वाह री धूप! हम लिख रहे हैं तो साथ साथ तुम पढ़ती भी जा रही हो क्या मेरे मन को...? चलो अच्छा है खिली रहो आज दिन भर, आज वैसे भी बहुत काम है तुम्हें... धरती के नम हिस्सों को ठिठुरन से बचाना है तुम्हें... पोर पोर में समा कर नमीं सोखनी है तुम्हें..., कोर नम रह जाएँ तो रहने देना... धरा की आँखों में खुशियों की धूप भरना हमारा काम है... मिलजुल कर लेंगे हम इस दायित्व का निर्वहन... तुम पेड़ों को जीवन देना, हम मिलजुल कर संवेदनाओं को जीवन देंगे, सौहार्द प्रेम के बीज अंकुरित होंगे... धरा स्वर्ग थी, स्वर्ग है और स्वर्ग ही रहेगी...!
बस देखते रहना... बने रहना और माहौल बनाये रखना... निराश हो जाते हैं हम... इंसान जो हैं...; हे धूप! तुम्हारी तरह खिल कर मुस्कुराहट बिखेरने में दक्ष नहीं हैं हम... तुम्हें लगे रहना है... हमें प्रेरित करते रहना है... लोगों की भीड़ में इंसान तलाशते रहना है... कुछ एक भी मिल गए...फिर क्या, फिर सब अच्छा ही होगा!!!

बुधवार, 28 मार्च 2012

समय की दास्तान और कविताओं की कहानी!


हर कविता की एक कहानी होती है... कई बार समझ से परे... अवचेतन मन की किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए लिखी गयी या फिर किसी ऐसे विम्ब को जीवित करने हेतु लिखी गयी जो समय की धारा में खो जाने वाला है एक निहित प्रक्रिया के तहत; अब ये विम्ब किसी एक क्षण का भी हो सकता है... किसी व्यक्ति का या फिर समूह का या फिर चेतना के धरातल पर उगने वाली प्राकृत कलियों का!
हम भी कवितायेँ लिखते रहे हैं... यूँ ही अनायास... शिल्प के लिहाज़ से कमज़ोर कवितायेँ, बकवास कवितायेँ... लेकिन भाव के धरातल पर पूर्ण रूप से सच्ची, सरल एवं सहज! अनुशील पर दो वर्ष से लिखते हुए सहेजा है बहुत कुछ, अब मन है कुछ कहानियां सहेजने का... कविताओं की कहानी!
तो शुरू करते हैं... नीले अंबर तले एक और सफ़र... कविताओं के पीछे की कहानी उकेरने का सफ़र! शायद इसी प्रयास में सभी कविताओं से पुनः गुज़रते हुए पुनर्पाठ के साथ कुछ आवश्यक सुधार भी हो जाएँ... कविताओं को तराशने का हुनर आ जाये हमें अनायास ही... जैसे अनायास बह जाती है कविता!
काश...

'अनुशील' की यात्रा विम्बित करते हुए...


अनुशील पर जब लिखना शुरू किया था तब कहाँ पता था कि सैकड़ों पन्ने यूँ ही बचपन से अब तक खो देने वाली यह लड़की... अपनी वेबसाइट पर दो सौ पोस्ट के आंकड़े पार कर पाएगी... और कुछ भी नहीं खोएगा!
सब एक स्थान पर संकलित मिलेगा... जिसे वह जब चाहे तब पलट पाएगी:)

कवितायेँ, आंसू और भाव तो थे...
पर कभी सहेजे नहीं गए...
फिर, एक दिन
किसी ने वृक्ष, पंछी और बादलों से सजा कर
'अनुशील' उपहार में दे दिया
तब से
सहेज रहे हैं कितना कुछ उसके प्रताप से!
अब
इस अनूठे श्रेय के लिए
कैसे(?)
आभार व्यक्त किया जाता है...
ये नन्हा सा प्रश्न
पूछते हैं हम
अपने आप से!

तब...
अन्दर सबकुछ
मौन हो जाता है
जुड़ते हैं जब भाव
दूरी का आभास
गौण हो जाता है...!!!

मंगलवार, 27 मार्च 2012

शब्द बोलते हैं...


मेरे कलम की स्याही सूख गयी है... लिखना संभव नहीं है, अभी बहुत कुछ यहाँ वहाँ का सोच समझ रहे हैं... शब्द कहते हैं- रुको थोड़ा ठहरो... हमें ज़रा भीतर की हलचल महसूसने दो, लिख जाओगी हमें तो फिर हम बाहर के हो जायेंगे... वहाँ तुम्हें या तुम्हारे शब्दों को समझने वाला कोई नहीं होगा...!
शब्दों को भी दुनिया की भीड़ में अर्थ सहित खो जाने का डर है... क्यूंकि भाषा बदल गयी है... आचरण के व्याकरण बदल गए हैं... संवेदना का कोई सोता चिरायु होने का दावा नहीं करता... हर ओर प्रभाव का गणित काम करता है...; ऐसे में सरल सहज सरिता सी बहने वाली कलम का सूखना स्वाभाविक ही है...

*****

फिर एक आवाज़ वहीँ कहीं भीतर से, शब्द ही बोल रहे हैं फिर से... पर कुछ अलग सा स्वर है... किनारों पर किरणें चमक रही हैं और आस विश्वास के साथ अक्षर अक्षर आपस में मिल कर कुछ बुन रहे हैं... प्रकाश के झालर सा कुछ! यह लटकेगा दरवाज़े पर और जीवन की राह रौशन हो जायेगी...
कहते हैं शब्द- बुनो तुम भी एक ऐसा प्रकाश वृत्त जहां अँधेरा हो भी तो प्रकाश की सम्भावना से इनकार न हो...
स्याही का रंग जो भी हो, लिखे वह केवल उज्जवल प्रतिमान, जिससे निराश ज़िन्दगी उसतक जाकर अपने लिए मुट्ठी भर सवेरा उठा ले और वह चले तो सुनाई दे ऐसी पदचाप जो कलम को पुनः नयी उर्जा से भर दे!
ये होगा न सुन्दर सहज अन्योन्याश्रित सम्बन्ध!

गुरुवार, 8 मार्च 2012

रंग और रहस्य प्रकृति के... प्रकृति ही जाने!


आज कविताओं से गुज़रते हुए जिस कविता को अनुवाद के लिए चुना वह याद दिला गया किसी की... जो अब इस दुनिया में नहीं हैं...
स्वीडिश कवि वर्नर वोन हेइदेन्स्तम की एक कविता वसंत ऋतु पर यूँ कहती है...

अब यह दुखद है मर चुके लोगों के लिए,
वे वसंत ऋतु का आनंद लेने में सक्षम नहीं हैं
और सूर्य की रौशनी महसूस नहीं कर सकते
प्रकाशयुक्त सुन्दर पुष्पों के बीच बैठ कर.
लेकिन शायद मृत आत्माएं फुसफुसाती हैं
शब्द, फूल और वायलिन के माध्यम से,
जो कोई जीवित प्राणी नहीं समझता.
मृतात्माएं हमारी तुलना में अधिक जानती हैं.
और शायद वे वैसा ही करेंगी, जैसा कि सूरज करता है,
पुनः एक हर्ष के साथ, जो हमसे कहीं अधिक गहरी है
शाम की छाया के संग विचार की उस सीमा तक विचर जाता है
जहां रहस्य ही रहस्य है,
जो केवल कब्र को ज्ञात है.

कविता का अनुवाद कर बार बार इसे पढ़ते हुए बड़े पिताजी स्मरण हो आ रहे हैं... ये होली का मौसम है न और यही उनकी विदाई की घड़ी भी थी इस दुनिया से!
होली ढ़ेर सारे रंग ले कर आती है... ढ़ेर सारी मस्ती लेकर आती है... ढ़ेर सारे पकवान ले कर आती है... हमारे यहाँ भी आती थी एक वक़्त... लेकिन एक ऐसी भी पूर्णिमा थी जब हमारे यहाँ मृत्यु सन्नाटे लेकर आई थी... उधर होलिकादहन हो रहा था और इधर मेरे बड़े पिताजी के प्राण पखेरू उड़ रहे थे... होली का समय था... खबर सुनते ही हमलोग गाँव के लिए तुरंत निकल भी नहीं पाए, दो दिन के बाद यात्रा संभव हो पायी... वह समय कितना कठिन था यह सोच कर आज भी सिहर जाते हैं... हमारी होली कब रंगों से दूर हो गयी हमें पता भी नहीं चला...! पापा की चिंता स्वाभाविक थी... वे बड़े पिताजी के न रहने पर अकेले जो हो गए थे...! आज बारह वर्ष हो गए लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो...!

तीन वर्ष पूर्व मेरी शादी हुई... मम्मी और पापा होली के लिए ये कहना कभी नहीं भूलते कि- 'अब तुम्हारा कुल खानदान बदल गया... होली विधि विधान से मनाया करो...', लेकिन यूँ बदलता है क्या भावों का संसार! 
खैर कभी मौका ही नहीं लगा ये विधि विधान पालने का... यहाँ स्टॉक होम में रंग गुलाल कहाँ मिलने वाले हैं जो प्रभु के चरणों में अर्पित करके होली खेलें... सो ये रंग अबीर तो दूर ही हैं हमसे अब भी... और जहां तक पकवानों का सवाल है तो उनके लिए किसी विशेष उत्सव का इंतज़ार थोड़े ही न करते हैं हम, जब मन किया बना लिया... होली में भी बनायेंगे... हमारे स्वामी सुशील जी को घर की कमी महसूस नहीं होने देंगे...!

रंग ही तो है... दुःख का हो, सुख का हो, उदासी का हो, प्रेम का हो, विदाई का हो, आगमन का हो या फिर शाश्वत आत्मा की उपस्थिति का... अगर रंग ही होली है तो होली तो हर दिवस है!
चमकते हुए रंगों का त्योहार आप सभी को मुबारक हो...!

शनिवार, 3 मार्च 2012

आख़िरी दरवाज़ा!


अपने आप को सर्वसुलभ बना देना ही समस्यायों की जड़ है, सरल होना ही सजा है... ये दुनिया अच्छी नहीं है क्यूँकि लोग अच्छे नहीं है या शायद ये भी हो सकता है कि हम ही अच्छे नहीं हैं इसलिए दुनिया भी बुरी लग रही है. ये दूसरी सम्भावना ही सत्य हो शायद.
कभी कभी ऐसी खाई सामने नज़र आती है कि आगे बढ़ पाना नामुमकिन सा लगता है... ऐसा प्रतीत होता है मानों जीवन को यहीं समाप्त हो जाना चाहिए, जीने का कोई औचित्य नज़र ही नहीं आता. मन सारे दरवाज़े खटखटा चुका होता है जहां कहीं से भी सहारे की उम्मीद लगायी जा सकती थी और हाथ लगी निराशा से हतोत्साहित हो असीम अन्धकार में डूब जाता है... अपने आप पर से विश्वास उठ सा जाता है कि तभी एक आख़िरी दरवाज़ा खुलता है... और वहाँ दस्तक देते ही सारी समस्या कहीं विलीन हो जाती है.
सच है, ये अजीब है कि उम्मीद का आख़िरी दरवाज़ा हम सबसे अंत के लिए बचा कर रखते हैं... जान बूझ कर ऐसा नहीं होता, शायद यह अवचेतन में चलने वाली कोई प्रक्रिया है जो सारे कष्ट उठा लेने के बाद ही उस दरवाज़े तक पहुँचने की अनुमति देती है! काश ऐसा होता कि पहली दस्तक ही उस दरवाज़े पर दी होती चेतना ने तो ये मृत्यु तुल्य कष्ट तो भोगने से बच जाती न.... हे ईश्वर! अब जो कभी ऐसी निराशा से सामना हो तो इतनी दया दिखाना कि यहाँ वहाँ भटकने के बजाये सीधे तेरी शरण में आयें... और निराशा के क्षणों में ही क्यूँ सदा सर्वदा के लिए तुम्हारे ही शरणागत हों फिर ये विपदा आये ही न.

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

एक सुबह की तस्वीर!


हर इंसान से गलतियाँ होती हैं और हमसे तो कुछ ज्यादा ही होती हैं... हर बार हम लोगों को सहज और सरल समझने की भूल कर बैठते हैं और इस वजह से स्वयं तो परेशान होते ही हैं, मेरे अपने भी मेरी वजह से दुखी होते हैं. जिनसे मेरा कोई लेना देना नहीं हैं... जिन्हें दूर दूर तक मेरे आसपास भी नहीं होना चाहिए था ऐसे लोग मेरी ही दी हुई छूट के कारण मेरे ऊपर इस तरह हावी हो जाते हैं कि सम्पूर्ण शांति नष्ट हो जाती है...! अब एक बात तो साफ़ है, समस्या है और समस्या हममें ही है तो सुधार भी हमको ही करना है... अब इसी दुनिया में जीना है तो अपने आप को थोड़ा तो बदलना ही होगा...! बस हमें संतोष इस बात का है कि आसपास तमाम कुप्रवृतियों वाले लोगों के बीच ऐसे भी कुछ ईश्वरीय स्तम्भ हैं मेरे जीवन में जो तार लेते हैं हमको!
सब विधि का विधान है, इतनी ही बात का संतोष है कि इस सत्य ने अपने आप को प्रमाणित और प्रतिष्ठित कर लिया मेरे हृदय में कि, "जब अन्धकार अपनी सीमा लांघ जाए तो समझ लेना चाहिए कि सुबह होने वाली है!"
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This picture was taken on a morning at Miami Beach. Least did I know then that it would be the profile picture of my website one day and one of my favorite photographs:)

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

बर्फ़ीले मौसम में मखमली घास का स्मरण!


ये तारीख़ केवल एक बार आती है चार वर्षों में... चलो, कम से कम आती तो है एक निश्चित अंतराल के बाद...; जीवन में तो न निश्चितता है... न कोई एक निर्धारित अंतराल है जिसके बाद खुशियों की राह तकी जा सके! ज़िन्दगी तू ऐसी क्यूँ है?
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रास्ते में जितने कांटें हैं सबसे आहत होने को तैयार हैं हम... फूल खिलें तो सही.
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आँधियों में पेड़ गिर जाते हैं... दूब सुरक्षित ही रहती है सदा, धरती से चिपकी हुई जो है.
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बर्फ़ीले मौसम में मखमली घास का स्मरण जाने क्यूँ बड़ा मोहक लग रहा है...
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सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

यात्रा अनवरत और कलम का प्यारा साथ...!


कवितायेँ उदास होती जा रही हैं... कहीं छुप जाना चाहिए हमको... कलम तोड़ देनी चाहिए... नहीं लिखना चाहिए लेकिन फिर ये कलम भी कम कहाँ है तर्क पर उतर आती है... कहती है 'मुझे भी तोड़ दोगी तो तुम्हें कौन संभालेगा हर क्षण' और फिर एक चुप्पी; जो कहना था वह तो कह गयी वो, क्या जवाब दें? निःशब्द हैं और कलम मुस्कुरा रही है क्यूंकि वो जानती है कि तमाम तर्क वितर्क के बाद उसी की शरण में जायेंगे... टिकट ले कर यूँ ही यात्रा पर निकल जायेंगे... बस से या मेट्रो से और वहाँ भी कोई कागज़ निकाल कर कलम दौड़ाने लगेंगे... इसके सिवा उपाय भी क्या है...
हरदम बारिश थोड़े ही न होती है कि उसमें रोते हुए चले आप और कोई समझ भी न पाए, हमेशा बर्फ़ भी तो नहीं गिरती कि उसके ही कुछ कण चेहरे को यूँ ढ़क ले कि आंसू निश्चिन्तता से बह सके... इसीलिए तो होती है कलम... यूँ आंसू लिख जाती है कि एक सुकून मिलता है इस बात का कि दर्द व्यर्थ नहीं गया... लिखे हुए शब्द ऐसी ही व्यथा से जूझ रहे किसी व्यक्ति का सहारा बन जायेंगे... अगर उसकी नज़र से यूँ ही गुज़र गए तो! होता है न ऐसा कि कई बार कितना कुछ पढ़ते हुए अनायास लगता है जैसे मेरी ही बात हो रही हो... मेरा ही दर्द लिखा गया हो... फिर जो सांत्वना मिलती है यह वही समझ सकता है जो कभी न कभी ऐसे अनुभव से गुज़रा हो...!
दर्द ही तो है वो तत्व जो जोड़ता है सभी को... सुख में तो हमने वो ताकत नहीं देखी अबतक. फिर कलम समझाती है हमें... 'अरे तू इतना न सोचा कर... जानती है, ये लिखा हुआ तेरे कई बिछड़े हुए मित्रों को बड़ा सुकून देता है...!'
सच कहती है कलम, अभी कल ही तो वह कह रहा था कि मेरी कविताओं को गुनगुनाते हुए कई पड़ाव पार कर लिए उसने... वर्षों बाद मिलने वाले स्कूल के मित्रों को भी अब तक याद है मेरी कवितायेँ... कलम टूट जाती थी तो कलम ही भेंट करने वाले कितने मित्र याद हो आते हैं...
हाँ लेखनी! हमें तुम्हारी बात मान लेनी चाहिए. चलो हम दोनों अब थोड़ा हंस लें, इससे पहले कि कोई परेशानी फिर दस्तक दे दरवाज़े पर:)

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

आंसू उकेरते हुए...


जीवन की आपाधापी में जीवन बिना जिए ही बीत जाता है... ये कैसे होता है कि मुट्ठी बांधते रह जाते हैं और रेत सी फिसल जाती है हाथों से समस्त जिए अनजिए पलों की दास्तान. लिखना होता होगा सहेजना पर इस लिखने की अनिवार्यता के पीछे जो दर्द होता है वह तो फिर भी अनचीन्हा ही रह जाता है... शब्द एक मात्र माध्यम हैं अभिव्यक्ति के पर यह माध्यम कभी कभी बहुत अपर्याप्त भी होता है, है न?
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मृत्यु की अनिवार्यता जीवन का ही एक पहलू है, तभी तो श्मशान से लौटते हुए भी जीवन की किलकारियां झूठी नहीं लगतीं... देखो, कहीं जीवन और मृत्यु किसी अनजान क्षितिज पर एकाकार तो नहीं हो गए?
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बहुत धुंधली सी एक स्मृति... और उनके चले जाने के बाद और गहराती हुई क्यूंकि वही एक स्मृति उस व्यक्तित्व की एक मात्र पहचान थी मेरे लिए... बुआ, मुक्त हो गयीं न आप? ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे!
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बहुत कम अवधि हेतु होता है यहाँ आना... मिलजुल लेना चाहिए समय रहते सब अपनों से... बना लेना चाहिए अपना सभी बेगानों को... जाने से पहले इतना तो कर ही लेना चाहिए: शेष कुछ भी नहीं रह जाता.
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किसी की विदाई की ख़बर से रोता तो है दिल... दिल जानता है कि एक दिन हमेशा के लिए हमें भी विदा हो जाना है.
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आंसू के धार से मिल कर निकल पड़ी एक और धारा जो धरा को क्षितिज से जोड़ देगी...!
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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

हम राहों को नहीं चुनते, राहें हमें चुन लेती हैं...!


कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम राहों को नहीं चुनते, राहें हमें चुन लेती हैं...! हम सपने कुछ और देखते हैं, होता कुछ और है... सारा जीवन ही इस आँख मिचौनी का खेल है. बचपन में यह खेल खेल कर तो हमने भुला दिया पर ज़िन्दगी ये खेल हमेशा हमारे साथ खेलती रहती है. हम चाहते कुछ है, होता कुछ है; कई बातें तर्क की सीमा से परे होती हैं... कुछ निर्णय नियति भी लेती है हमारे लिए. अब हमेशा कविताओं से भागने के बाद आज एक कविता ही है जो मेरे पास बची है... भुलाने, बिसराने, खो दिए जाने के बावजूद... एक वह ही है जो बचपन से अब तक साथ है. विज्ञान की पढ़ाई करते रहे और कविता साथ चलती रही... यहाँ आये तो समय के सदुपयोग हेतु स्वीडिश भाषा की पढ़ाई शुरू कर दी... फिर भी निराश ही रहे हमेशा, अब संतोष है... इस भाषा के कवियों को पढ़ने का अवसर हमें कहाँ मिलता अगर सोचे अनुसार आते ही यहाँ Bio-Informatics में शोध हेतु प्रवेश मिल गया होता..., भाषा सीखी मजबूरी में लेकिन आज बढ़िया लग रहा है, कोई शिकायत नहीं है तुमसे स्टॉक होम:) कविता है न मेरे साथ, हर निराशा को आशा में बदलने के लिए... अब नज़र का ही तो फर्क होता है... है न?
अभी मेरे हाथों में एक किताब है... De Bästa Svenska Dikterna Från Stiernhelm till Aspenström. अब बहुत सारे 'अगर मगर', 'ऐसा होता तो कितना अच्छा होता' जैसे भावों को अलग कर इसके पन्नों के बीच घूमते हैं... देखें तो कवितायेँ कौन से सितारे टाँकती है मेरे सूने अम्बर पर आज...!

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

बस कुछ एक बूँद स्नेह की बारिश और आशा की किरणें!


जब हम बहुत उदास होते हैं, तो रोते तो हैं ही पर अक्सर ऐसा भी होता है कि उदासी की एक सीमा का अतिक्रमण होने के बाद केवल आंसू पर्याप्त नहीं होते... तब और भी कुछ ऐसी अदृश्य शक्ति चाहिए होती है जो निराशा के घोर अन्धकार में किरण बन सके और जीने की कोशिश ज़ारी रह पाए.
हमें याद है पढ़ाई के दौरान जब बनारस में थे, तो बहुत सारा समय बीतता था मंदिर में... अब वो सेंट्रल लाईब्रेरी हो, उसके बगल में स्थित विश्वनाथ मंदिर हो, संकटमोचन हो या फिर तुलसी मानस मंदिर. सेंट्रल लाईब्रेरी को भी मंदिर ही मानते थे हम, सबसे अधिक समय भी यहीं बीता! संकटमोचन में भीड़ बहुत रहती थी... हमेशा भक्तों का ताँता लगा रहता था, मंगलवार को तो विशेष रूप से, लेकिन हमें याद है उस भीड़ में भी एक एकांत हमें हमेशा मिला वहां, जहां बैठ कर कितने ही पाठ किये... कितने ही मौन आंसू रोये. तुलसी मानस मंदिर की बात ही अलग थी... वहाँ जाते थे तो घूम घूम कर दीवारों को पढ़ते रहते थे, सम्पूर्ण रामचरित मानस मंदिर की दीवारों पर अंकित जो है. विश्वनाथ मंदिर के साथ तो कितना कुछ जुड़ा है... विस्तार से लिखेंगे कभी स्मृति के गलियारे में झांकते हुए. उदास होने पर जाने को कई जगह ढूढ़ रखा था हमने वहां, ऐसे कई स्तम्भ थे जिनसे टिक कर बैठ रोया जा सकता था... तभी तो तमाम परेशानियों के बावजूद इतने समय तक हम रह पाए वहाँ.
यहाँ स्टॉक होम में एक स्थान है जहां ऐसी मनोदशा में अक्सर पाँव चल पड़ते हैं... बिब्लिओतेक (लाईब्रेरी)! ढ़ेर सारी किताबों के बीच घूमते हुए उदासी को भुला देने का उपक्रम चलता रहता है और बहुत सारी किताबें चुन कर ले आते हैं..., ये जानते हुए भी कि समयाभाव के कारण सब पढ़ नहीं पायेंगे! ये चलता रहता है और ऐसी कई किताबें हैं जो उठा लाये और बिना पढ़े लौटा भी आये नियत दिन पर... लेकिन ऐसी भी कई किताबें हैं जिन्हें पढ़ा और खूब पढ़ा. फिर, ये सोच कर अपनी उदासी का आभार भी माना कि अगर वह न होती तो उन किताबों से भी परिचय नहीं हुआ होता. ऐसी ही किसी उदास शाम को स्वीडिश कविताओं की किताब मेरे हाथ लगी... और हमने ये सोच कर उनका अनुवाद आरम्भ किया कि इस तरह इस भाषा को पढ़ते हुए इस भाषा की कविताओं से परिचित होना और उन्हें अपनी भाषा में संकलित कर लेना बड़ा बढ़िया रहेगा...; सचमुच ये एक साझे क्षितिज पर खिलने वाले बाल अरुण की लालिमा थी जिसने हमें प्रेरित ही नहीं बल्कि भावविभोर भी किया...!
आज मित्र शायक आलोक के विचार इन अनुदित कविताओं के विषय में पढ़कर सचमुच चमत्कृत हुए... उनके नोट को सहेज लेने का मोह बिसार नहीं पा रहे, इसलिए यहाँ इसे सुरक्षित रख ले रहे हैं अपने लिए:) भविष्य में किसी निराश क्षण में ये शब्द गति देंगे मेरे क़दमों को...

Shayak's note

"एक मोड़ आएगा ऐसा/जब ज़िन्दगी अलविदा कहेगी/पर उसके पहले कटिबद्ध है वह/क्षण दर क्षण साथ रहेगी (अनुपमा पाठक) ....
अनुपमा की अपनी एक दुनिया है...एक ऐसी दुनिया जहाँ जहाँ दो अलग अलग दुनिया सिमट कर एक हो जाती है ....एक पदचिन्ह उसका पीछा करती है दूसरी उसके आगे आगे चलती है ...स्वीडन में रहने वाली अनुपमा जब अपनी पसंदीदा स्वीडिश कविताओं को बुदबुदाती है तो अर्थ एक नया आकार ग्रहण कर लेता है और वहीँ दो दुनिया का एक साझा क्षितिज उभर कर अपना अस्तित्व ग्रहण करता है ..क्षितिज के उसी चिर परिचित खूंटे से अपनी अनुभूतियों को शब्दों की रस्सी से बाँध फिर अनुपमा एक नया अहसास बुन देती हैं... (शायक आलोक )
(अनुवाद: अनुपमा पाठक)
हेनरी पर्लैंड की एक और कविता
कल
जब मैं घर गया
अँधेरी सड़क से रात में,
चमका आसमान से
शब्द
जिसे मैंने बहुत पहले ही जला दिया था.
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क्या अब मुझे आसमान भी जला देना चाहिए?
बेन्ग्त अन्देर्बेरी की एक कविता
जून के महीने में होना चाहता हूँ
हल्के भूरे रंग के पंखों वाला भारव्दाज़ पक्षी,
देवदार वृक्ष अन्धकार के आगमन पर,
त्याग देना चाहता हूँ अपनी गति,
बन जाना चाहता हूँ छछूंदर
और दुनिया के अंधकारपूर्ण समय में
आराम करना चाहता हूँ , जंगली पक्षियों के झुंड की तरह,
जीवन के बाहर
धरती के तल में अपने सुनहरे रेतीले प्रवास पर.
बिर्गिता रुदेस्कोग की एक कविता
लक्ष्य तक पहुँचने के लिए
अक्सर मुझे यात्रा करनी चाहिए
पीछे प्रारंभिक बिंदु तक
और हर बार अंततः आगे पहुंचकर
हमेशा वापस सोचना चाहिए
बरब्रो लिन्द्ग्रें की एक कविता
एक न एक दिन हम सब मर जायेंगे
तुम और मैं
सभी कमज़ोर इंसान मर जायेंगे
और सभी जानवर
और सभी पेड़ मर जायेंगे
और धरा पर खिले फूल भी
लेकिन
एक ही बार में नहीं
बल्कि कभी कभार अलग अलग समय पर
ताकि उसपर शायद ही ध्यान जाए!
मार्गारेता लिथें की एक कविता
रेल मुड़ती है
अचानक दिखता है मुझे
मेरा निकट भविष्य
तिरछे झांकता हुआ पीछे से. "
ये सब लिखने के लिए शायक ने मेरी कवितायेँ पढ़ीं, अनुवाद पढ़े और अपना स्नेह दे कर क्षितिज ही नहीं वह धरातल भी आलोकित कर दिया जहां हम फिलहाल खड़े हैं अभी. बस कुछ एक संदेशों का परिचय और यह आत्मीयता! धन्यवाद शायक:)
मनोज पटेल जी का मार्गदर्शन भी मिला और यह कोना (http://svenskpoesianusheel.blogspot.com/)कुछ कुछ सज गया जैसा उसे होना चाहिए शायद, मॉलिन डालस्ट्रोम (मेरी शिक्षिका) की प्रेरणा भी बहुत सहायक रही इस कार्य को आरम्भ करने में...! इन महत श्रेयों के लिए शब्दों में आभार कैसे व्यक्त किया जाता है... यह हमें ठीक से नहीं आता.
कहते हैं, प्रारंभ हो जाए किसी कार्य का तो दिशा मिलती जाती है... दिशा मिलती जाए और निरंतरता बनी रहे. और क्या चाहिए नीले अम्बर से हमें- बस कुछ एक बूँद स्नेह की बारिश और आशा की किरणें!

बूंदों की बात ही निराली है...!



आज मेरा मन है कि केवल उजला ही उजला लिखा जाए...
बर्फ ज़मी हुई हो पूरी धरती पर, धरती क्या पानी भी ज़मा हुआ हो जैसा इस तस्वीर में है. पूरी की पूरी जलराशि ही बर्फीली है; कभी कभी बहता पानी भी ठोस हो जाता है... होते हैं ऐसे भी मौसम जब पानी पर चल सकना संभव हो जाता है. आखिर पानी के रूप भी तो कितने हैं... कभी रिमझिम बूंदें है पानी, कभी रुई के फ़ाहों की तरह गिरती बर्फ़ीली बारिश है पानी, कभी आँखों में लहराता समंदर है पानी और हरे पत्तों पर सजा ओस भी तो पानी ही है. इन सभी रूपों से मेरी पहचान है, कुछ से तो बड़ी ही गहरी!
आँखों में लहराते समंदर को छिपाया नहीं जा सकता, लेकिन अगर छिपाने की कोशिश करनी हो तो बारिश में भींगना चाहिए... आसमान से टपकते ढ़ेर सारे अश्रुबून्दों के समक्ष कुछ एक बूंदें आँखों की खो जायेंगी और यह एहसास भी हो जाएगा कि वृहद् कारण होते हैं बारिशों के, अपने छोटे छोटे कारणों के लिए बरसना... आँखों को शोभा नहीं देता.
ओस की बूंदें चुनते हुए हमेशा लगता है कि रात भर ये पत्ता रोया होगा क्यूंकि इसे पता है कि इसकी नियति क्या है... जहां है उस डाल से इसका कुछ क्षण का ही नाता है, सूख जाएगा... टूट जाएगा और हवा कहीं और उड़ा ले जायेगी; जाने क्यूँ ओस की बूंदें भी आंसू ही लगती हैं, कौन जाने... हो भी!
वो कहते हैं न, आँखें कुछ भी वैसा नहीं देखतीं जैसा कि वो होता है. अक्सर मन में उमड़ घुमड़ रही बातों का अक्स ही दृष्टि देखती है सभी अव्ययों में.
नीले अम्बर के नीचे अगर सुकून है तो शायद इन आंसुओं में ही है... बूंदों की बात ही निराली है, इन्द्रधनुष भी तो आखिर एक बूँद की ही कलाकारी है!

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

नीला अम्बर...!




नीला अम्बर...! अम्बर तो नीला ही होता है, इसमें अम्बर को नीला क्यूँ लिखना... और ये नया कोना ही क्यूँ बनाना जिसे नीला अम्बर कहा जाए... इसी प्रश्न से आरम्भ किया जाए. प्रश्नों के उत्तर तलाशते हुए ही तो कितने तहों में सुलझ जाती है उलझनें और सब कुछ करीने से सज जाता है.
तो, शुरुआत करते हैं अम्बर को नीला कहने से... नीला इसलिए कि अम्बर के कई रंग होते हैं, कभी वह बादलों से भरा काला भी तो होता है और कभी मन के भाव के अनुसार कोई भी रंग लिए हुए हो सकता है... नीला इसलिए कह रहे हैं क्यूंकि शायद नीला ही उसका असल रंग है... सृष्टि भी तो नीले रंग का ही विस्तार है न.
अब दूसरा प्रश्न- ये नीला अम्बर क्यूँ? तो, ये इसलिए कि जो कुछ भी लिखेंगे यहाँ वह येन-केन-प्रकारेन नीले अम्बर के नीचे ही घटित हुआ होगा... और नीला अम्बर हर उस एहसास का साक्षी होगा जो भीतर घर किये हुए है... हंसाते रुलाते संग चल रहा है! अब वह मेरा अपना जमशेदपुर हो, वहां से जुड़ी बातें हों, बनारस हो... जहां ६ वर्षों तक रहना हुआ, या फिर अब यहाँ स्टॉक होम हो, जहां २ वर्षों से हैं- सब जगहों में एक बात कॉमन है और वह यह कि सब जगहों से दीखने वाला नीला अम्बर एक ही है.
एक रोज़ यूँ ही अनुशील पर लिखना आरम्भ किया था... कई भूली बिसरी कवितायेँ सहेजीं, लिखते भी जा रहे हैं, जो जो लेखनी लिखती जा रही है; आज सोचा इन कविताओं से जुड़ी कहानियां भी अपने लिए लिख रखी जाएँ... तो नीले अम्बर ने हमसे कहा- 'आओ लिखो यहाँ... जो मन में आये सो, मैं हूँ तुम्हें सहेजने की खातिर ', इतना सुनना था कि उद्धत हो गयी कलम और कागजों से निकल कर कुछ सहज ही यहाँ अंकित होने लगा. हमने भी बीच में आना उचित नहीं समझा... अब ये है- हम और हमारा नीला अम्बर- अम्बर, जो कभी बरसेगा भी... कभी तरसेगा भी... और कभी टकटकी लगाए शून्य से शून्य को निहारेगा भी!