गुरुवार, 26 सितंबर 2013

दीवार पर खिली कविता!

ये एक मामूली सी कुर्सी... और इस कुर्सी के यहाँ इस तस्वीर में होने की वजह धूप का वह कतरा जो ढ़लती शाम के साथ खिड़की पर रखे गमले में लहलहाते पत्ते का अक्स ले उभर गया दीवार पर...!
किसी रोज़ यूँ ही ये देख कर क्लिक किया था, और अगले ही क्षण फिर ये कतरा वहाँ नहीं था... तस्वीर है आज. उस क्षण को जीवंत करती, उस एक क्षण के भीतर समाते जाने की अनकही सी कहानी है ये तस्वीर...! कितना कुछ कहती हैं न दीवारें भी, धूप के एक कतरे ने जैसे स्वर दे दिए हों... मूक सी दीवार को, कोई शाम इस कदर मेहरबान रही हो कि अधखुली खिड़की से झाँक कर ढलते हुए अपना कोई निशाँ सा छोड़ गयी हो जिसके प्रताप से दीवार अब भी मुस्कुराती है...! दीवार पर कोई कविता खिली हो जैसे... बिन शब्दों वाली, अनकहा कुछ, मौन सा स्निग्ध और अपरिमेय!
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कई बार होता है, नींद नहीं आती... हम आकाश तकते जागते रह जाते हैं... तारों भरे अम्बर के अकेलेपन को महसूसते हैं. वहाँ कोई एक नित घटने बढ़ने वाला चाँद होता है जो हमारी चेतना में जाने कबसे विद्यमान है, पर ऐसी ही कोई एक जगी जगी रात होती है जब हम उस चाँद को नए सिरे से पहचानते हैं, उसके गुण तहते हैं, उससे अपनी बातें कहते हैं...! दूर होकर भी वही है जो धैर्य से सब सुनने को तत्पर रहता है... सुनता ही तो आया है वो धरती वालों का दर्द... दिगदिगंत से; अपने घटने बढ़ने का दर्द कभी कहाँ कहा उसने किसी से...! क्या चाँद को कोई हमदर्द नहीं मिला...? कौन जाने!
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जैसे एक टुकड़ा धूप का वैसे ही टुकड़ा-टुकड़ा मन और मन की कुछ बातें... तस्वीर ने लिखवाया, दीवार ने लिखवाया, परिचय की एक सुनहरी किरण है जिसने शब्दों का हाथ थाम उन्हें सजाया, सज गया है बेतरतीब जैसे, वैसा ही सहेज लिया गया इधर, बस और कुछ नहीं...!
  

रविवार, 8 सितंबर 2013

कोहरा!

कोहरा बहुत ज्यादा है… कुछ नहीं दिख रहा… मेरी  खिड़की से जो हरियाली दिखती है, जो आसमान पर उगते सूरज द्वारा की गयी चित्रकारी दिखती है वो सब गायब… बस है तो कोहरा. ये बर्फ गिरने के मौसम वाला धुंधलापन नहीं है… न ही मुसलाधार बारिश में जो कुछ न देख पाने की स्थिति पैदा होती है, वह ही है.… यह कुछ और है, कोई और ही मौसम है, कोई और ही खेल है विधाता का! 
कोहरा घना है, छंट जाएगा ऐसा दीखता तो नहीं पर छंट जाने की सम्भावना दिख जाती है कोहरे के बीच से ही… हरे पेड़ नहीं दिख रहे पर सामने ही चर्च से सटे जो खम्भा खड़ा है न इंटों का, वह झलक रहा है. पहले तो कभी यूँ नहीं दिखी यह दिवार, आज कोहरे ने सबकुछ छुपा कर न दिखने वाली कोई चीज़ दिखा दी है. 
मन के कोहरे से झांकती एक ज्योत जैसे हम तक पहुँचने का प्रयास कर रही हो. कितना भी प्रयास कर ले ज्योत, हम कितनी भी मिन्नतें कर लें पर रौशनी तक का सफ़र तो खुद ही तय करना होता है. ज्योत तक खुद ही बढ़ना होता है.
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अब कुछ एक घंटे बीत चुके है, कोहरा छंट चुका है, मेरी खिड़की से दृश्यमान मंज़र फिर से दिखने लगे हैं और देख रहे हैं कि खम्भे की ओर से भी मेरा ध्यान हट चुका है.… 
बस इतनी प्रार्थना करते हैं चुपचाप कि ये खम्भा तो वैसा ज़रूरी नहीं था ध्यान में न रहे कोई बात नहीं, पर जब मन का कोहरा छंटे तो कोहरे में दिख रही ज्योति विस्मृत न हो जाए हमसे!
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तस्वीरें: ये खिड़की से दिखता कोहरा और उसका छंटना…
मन के कोहरे की कोई तस्वीर नहीं होती, ये हम सबके भीतर होता है… और हम सबकी ज्योत भी जुदा जुदा और केवल अपनी होती है, सो उन कोहरों की तसवीरें आप स्वयं तलाशें…  तराशें! 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

कुछ यहाँ वहाँ के टुकड़े!

मिन्नतें करने से नहीं आती बारिशें... और न ही चिट्ठियां, उन्हें आना होगा तो बेधड़क आएँगी, खूब आएँगी... मन प्राण खुशियों से भिंगाने, नहीं आना होगा तो नहीं आएँगी, भले कितनी ही मिन्नतें कर ली जाएँ... चिट्ठियां तभी न आ सकती है जब कोई लिखे उधर से और पता टाँके हमारे नाम का... बारिशें तभी न बरस सकती हैं जब कोई हो वहाँ ऊपर बादलों की बोरियों की गाँठ खोलने वाला... ऐसा कोई होगा नहीं, या होगा भी पर उसके पास न हो फुर्सत और न ही फुर्सत निकालने की कोई तमन्ना तो कैसे होंगी बारिशें, कैसे पहुंचेंगी चिट्ठियां...
ये बदमाश मन ये छोटी सी बात क्यूँ नहीं समझता आखिर और बार बार उलझता है ऐसी पहेली से जो सुलझने को तैयार ही नहीं...!
हो तो यह भी सकता है कि चिट्ठियां आ सकें इस लायक हो ही नहीं हम... बारिशें भी खूब जानती हैं उन्हें कहाँ बरसना है, उनको संयंत्रित नहीं कर सकते हम...! अपने आप से ही नाराज़ होकर खूब सारी बूंदें आँखों से बरस जाएँ ये ही हो शायद अपने हिस्से की बारिश....
और चिट्ठी... उसकी तो आस ही व्यर्थ है...!
6.7.12
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कभी हुआ है ऐसा कि आवाजें सुनने को तरस गए हों? एक अजीब सी नीरवता हो जहां अपने आप तक पहुँच पाना भी मुश्किल सा लग रहा हो?
होता है अक्सर ऐसा… आवाजें सुनने को तरसे हुए, किसी अज़ीज आवाज़ तक पहुंचे भी हों पर संवाद की सम्भावना शून्य लगी हो और रुंधे हुए गले ने किसी हेल्लो का ज़वाब दिए बगैर काट दिए हों फ़ोन. होता है ऐसा, कई बार हुआ है. स्कूल के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी हॉस्टल में होते थे तब लगातार होता था… (घर से दूर रहना असह्य हुआ करता था और हमसे लौट जाने के कितने ही उपक्रम करवाता था… पर रहना तो पड़ा ही और पूरे सात वर्ष रहना हुआ, खैर ये अलग कहानी है.…. ) अब भी होता है रुंधे गले द्वारा यूँ ही संवाद करने की असमर्थता के कारण फोन डिसकनेक्ट करना… यहाँ वहाँ यदा कदा.
अपनी आवाज़ तक पहुंचना भी कभी कभी कितना नामुमकिन सा लगता है न!
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पहला... ये शब्द ही ऐसा है, कि इसके बाद जो भी शब्द लगे वो इतना खूबसूरत हो जाता है कि फिर आजीवन उसके मोह से नहीं निकला जा सकता!
ज़िन्दगी भी वैसी ही खूबसूरत शय है... जी जानी चाहिए, हर हाल में!
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अलविदा कहते हुए जो आँखें भर आयीं तो अब तक नम हैं, दूर हो कर भी लोग साथ हो सकते हैं.… यही एक बात है जो बहुत बड़ी सांत्वना है जीवन के लिए.… 
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जीवन ने जो भी सीखाया, सब सीख कहाँ पाए हम, अब भी राहों में चलना कहाँ आता है हमें! जीवन की पाठशाला के अच्छे विद्यार्थी होने का मर्म ही समझ रहे हैं और दर्द रुपी शिक्षक हर पल हमारे सिरहाने बैठा हमें राह दिखा रहा है, कितना सीख समझ पाते हैं यह तो वक़्त पर छोड़ देना ही बेहतर है.
सभी गुरुओं को नमन!
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तस्वीर: बाल्टिक सागर में डूबती एक शाम… 
सब टुकड़े हैं, कोई किसी से जुड़ा नहीं है वैसे ही यह तस्वीर भी असम्बद्ध है टुकड़ों से फिर भी मेरा मन एक सम्बद्धता देख रहा है सभी टुकड़ों में तो तस्वीर भी साथ टांक रहे हैं.… हो सकती है न ये डूबती शाम भी विशाल सागर में निपट अकेली और उदास…!
और हाँ इस बेवजह के यहाँ वहाँ में, सबसे महत्वपूर्ण hello की कथा कहानी, जिसका लिंक हमने ऊपर भी दिया है… कितनी बार कहते हैं न हम यह शब्द पर कहाँ जानते हैं इसके बारे में इतना कुछ.…!