ये एक मामूली सी कुर्सी... और इस कुर्सी के यहाँ इस तस्वीर में होने की वजह धूप का वह कतरा जो ढ़लती शाम के साथ खिड़की पर रखे गमले में लहलहाते पत्ते का अक्स ले उभर गया दीवार पर...!
किसी रोज़ यूँ ही ये देख कर क्लिक किया था, और अगले ही क्षण फिर ये कतरा वहाँ नहीं था... तस्वीर है आज. उस क्षण को जीवंत करती, उस एक क्षण के भीतर समाते जाने की अनकही सी कहानी है ये तस्वीर...! कितना कुछ कहती हैं न दीवारें भी, धूप के एक कतरे ने जैसे स्वर दे दिए हों... मूक सी दीवार को, कोई शाम इस कदर मेहरबान रही हो कि अधखुली खिड़की से झाँक कर ढलते हुए अपना कोई निशाँ सा छोड़ गयी हो जिसके प्रताप से दीवार अब भी मुस्कुराती है...! दीवार पर कोई कविता खिली हो जैसे... बिन शब्दों वाली, अनकहा कुछ, मौन सा स्निग्ध और अपरिमेय!
***
कई बार होता है, नींद नहीं आती... हम आकाश तकते जागते रह जाते हैं... तारों भरे अम्बर के अकेलेपन को महसूसते हैं. वहाँ कोई एक नित घटने बढ़ने वाला चाँद होता है जो हमारी चेतना में जाने कबसे विद्यमान है, पर ऐसी ही कोई एक जगी जगी रात होती है जब हम उस चाँद को नए सिरे से पहचानते हैं, उसके गुण तहते हैं, उससे अपनी बातें कहते हैं...! दूर होकर भी वही है जो धैर्य से सब सुनने को तत्पर रहता है... सुनता ही तो आया है वो धरती वालों का दर्द... दिगदिगंत से; अपने घटने बढ़ने का दर्द कभी कहाँ कहा उसने किसी से...! क्या चाँद को कोई हमदर्द नहीं मिला...? कौन जाने!
***जैसे एक टुकड़ा धूप का वैसे ही टुकड़ा-टुकड़ा मन और मन की कुछ बातें... तस्वीर ने लिखवाया, दीवार ने लिखवाया, परिचय की एक सुनहरी किरण है जिसने शब्दों का हाथ थाम उन्हें सजाया, सज गया है बेतरतीब जैसे, वैसा ही सहेज लिया गया इधर, बस और कुछ नहीं...!