रविवार, 4 अगस्त 2013

ये उस समय की बात है...!


हमें ठीक ठीक याद नहीं कब फ्रेंडशिप डे जैसी चीज़ हमारी चेतना के धरातल पर वजूद में आई. ये उस समय की बात है जब दोस्तियाँ ऐसे किसी दिन का इंतज़ार नहीं करती थी अपने आप को सेलिब्रेट करने को…  नब्बे के दशक में हमारा बचपन हर रोज़ फ्रेंडशिप डे ही तो मनाता था, वह दशक समाप्त हुआ और हमारे जीवन का सुनहरा अध्याय भी समाप्त हो गया स्कूली जीवन की समाप्ति के साथ... जमशेदपुर छूटने के साथ. पर उस समय की दोस्तियाँ आज भी पूर्ववत ही हैं. हमें याद आता है स्कूल से निकलने के बाद जब सभी अपनी अपनी राह चले तो भी कुछ था जो जोड़े रहा… ये उस समय की बात है जब हम कुछ एक दोस्त एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे… अपने कॉलेज की बातें, घर से दूर रहने के अनुभव और भी कितना कुछ. हमें याद है तभी कभी उन लिखे जाने वाले अंतर्देशिये या पोस्टकार्ड में एक दूसरे को फ्रेंडशिप डे विश किया होगा पहली बार हमने, ये बीते दशक के पूर्वार्द्ध की बात है. ये वो समय था जब हमारे पास डिजिटल कैमरे नहीं हुआ करते थे पर होते थे संजो लेने योग्य कितने ही पल… ये वो समय था जब चिट्ठियां आउटडेटेड नहीं हुईं थी कि हमने लिखीं और पायीं कई चिट्ठियां स्कूल के बिछड़े दोस्तों से. फिर ज़िन्दगी और समय भागते रहे अपनी रफ़्तार से… बीतता रहा वक़्त और हम उस समय तक आ गए जब इन्टरनेट के माध्यम से जुड़ाव कितना सहज हो चुका है… लगता है सब आसपास ही हैं, सारी खुशियाँ और गम बांटे जा सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे स्कूल में हम लंच ब्रेक में टिफ़िन बाँट लिया करते थे. एक फ़ोन कॉल से कनेक्ट हो सकते हैं दुनिया के किसी भी कोने से किसी भी कोने में… हर उस दोस्त से…  जिसके बिना दोस्ती की परिभाषा ही हमारे लिए अधूरी है… और ऐसा जिस जिस दिन हो पाता है, वह दिन कितना सुखमय होता है यह अवर्णनीय है…! एक दशक से अधिक वक़्त हुआ, जिनसे मिले नहीं, उनसे ऐसा जुड़ाव कि लगता ही नहीं स्कूल में वो रोज़ रोज़ मिलने वाला क्रम कभी बंद भी हुआ हो इन सालों में! 
स्कूल के अंतिम दिनों में कभी यह कविता लिखी थी, खो गयी, फिर स्मरण के आधार पर अनुशील पर सहेजा… कुछ पंक्तियाँ बिल्कुल याद रहीं: :

जब घिरे हुए हों अंजानो से 
तब पता चलता है 
पहचाने चेहरों 
के बीच होना क्या चीज़ है! 
जगह छूटती है 
तब एहसास होता है
अपने आसमान तले 
अपनी ज़मीन 
कितनी अज़ीज है! 

…. और कुछ पंक्तियाँ विस्मृत हो गयीं. पुनर्लेखन ने कविता का स्वरुप कुछ कुछ तो अवश्य बदल दिया पर 
ये कविता उस स्वर्णिम वक़्त की याद तो दिलाती ही है जब मेरे पास एक हाथ की दूरी पर कोई न कोई अनन्य मित्र हुआ करता था… ये वो समय था जब भविष्य की रूपरेखा कुछ विशेष नहीं दिख पाती थी… और वर्तमान का मोह छूटता नहीं था! 
*****
जीवन यात्रा में आगे भी कितने लोगों से पहचान होती है, दोस्त मिलते हैं, अपनापन पनपता है मगर बचपन की दोस्ती तो बचपन की दोस्ती है न… अक्षर से पहले पहल जब पहचान हो रही थी उस समय का साथ है जिनसे, वो तो अनन्य होंगे ही… रिश्तों और रास्तों की तमीज़ सिखाने वाला विद्यालय तो हमेशा मन में बसा ही रहेगा चाहे हम कहीं भी चले जाएँ, कितने भी बड़े हो जाएँ, कितने भी बूढ़े हो जाएँ!
*****
बहुत सारी यात्राएं करते हैं हम जीवन में… जीवन ही एक यात्रा है… और इस यात्रा में मिलने वाले मित्र ही जीवन की पूँजी हैं! सबसे पहले हम अपने आप से मित्रता करें, औरों के लिए फिर हम और अच्छे मित्र बन पायेंगे; एक क्लिक से फ्रेंड और एक क्लिक से ही अन्फ्रेंड कर दिए जाने वाले इस समय में कुछ तो अलग मिसालें हों दोस्ती की!
*****
दोस्ती का रिश्ता कितना दिव्य है… आखिर अर्जुन का रथ हांकने वाले प्रभु उनके सखा ही तो थे… सुदामा के पाँव पखारने वाले कृष्ण से बड़ी मिशाल कहाँ है मित्रता की. लिखते  हुए कभी लिखा था कविता में: :

कृष्ण-सुदामा की 
अद्भुत मैत्री की झाँकी 
कहाँ मिलेगी आज...
उस भाव से भिन्न 
अगर है कुछ,
उससे, 
कमतर अगर है कुछ,
तो- 
उसे दोस्ती- 
कैसे कह दी जाये?
दोस्ती की क्या व्याख्या की जाये!
*****
तस्वीर: क्या तस्वीर लगायें? बचपन की, स्कूल के प्रांगन की, जमशेदपुर स्थित जुबली पार्क की जहां कितने ही स्कूल पिकनिक पर कितनी बार गए हम, दोस्तों की, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रास्तों की, विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित सेंट्रल लायब्रेरी की, अस्सी या दशास्वमेध घाट की जहां गंगा की लहरों से पहली बार पहचान हुई थी या फिर अथाह समुद्र की तस्वीर डाल दें  यहाँ… मित्रता की अकथ भावना को कह जाने के लिए? वैसे इतना सोचने की क्या आवश्यकता… तस्वीर से क्या होता है, तस्वीर तो मन में होनी चाहिए, यादों और भावनाओं को सबसे अधिक सूक्ष्मता से मन ही तो सहेजता है न. अब मन की तस्वीर कैसे लगायें सो वही तस्वीर लगा देते हैं जहां पर मन अभी है फिलहाल… गंगा में डोलती एक नाव पर! 

22 टिप्‍पणियां:

  1. दोस्ती तो हमारे लिए एक पवित्र ज्योति है जो जीवन भर जलती रहती है . चित्र का क्या , दिल में अमित छाप जो बसी है मित्रों की . आपने न जाने कित्ता कुछ याद दिला दिया . वो बनारस की गलियां और का ही वि वि में बिताया बचपन . .,

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    1. आपको इस टुकड़े ने बचपन याद दिलाया, बनारस की गलियां याद दिलाई..., ख़ुशी हुई!
      आभार!

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  2. मित्र निश्चय ही अमूल्य धरोहर हैं, हम सबके लिये, उन्हें सयत्न बचाये रखना चाहिये।

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  3. बहुत सुन्दर आलेख .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (05.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

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  4. आपका बहुत -बहुत आभार |नया ब्लॉग बहुत अच्छा लगा ,पोस्ट भी सामयिक |

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  5. कृष्ण-सुदामा की
    अद्भुत मैत्री की झाँकी
    कहाँ मिलेगी आज...
    आपके ब्लॉग को पढ़ा, बहुत बढि़या लेखन
    आपके द्वारा मेरे ब्लॉग की प्रशंसा के लिए आभार
    आज मेरे ब्लॉग पर कुछ नया पढ़े- मैं (शार्ट स्टोरीज)
    http://sarikkhan.blogspot.in/

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  6. अति उत्तम प्रस्तुति....वाह

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  7. Bahut aacha likha hai aapne ,sara bachpan jhat se yaad aa gaya aur mouj masti ke din mdhama cokadi ,bhari duhapatri mei ghar se chupke se kacche aam thodne ki jana aur barf ke gole khana bus dua yeh hai ki agar apne aap se paaki dosti to baaki sari dost mil jatti hai ,koi na ko rang ya roop mei !!!Happy Frienship day!!

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  8. तुम वापस आ गई अनु ...बड़ा प्यारा लिखा है ...एकदम ९० के दशक में जाकर पढ़ा ...

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  9. आजकल तो हरेक दिवस मनाने का रिवाज़ चल पडा है । मातृदिवस पितृदिवस मैत्री दिवस इत्यादि । पर फिर भी अ्चछा तो लगता है यह सब ।

    ऐसा नही कि जिंदगी में अब खुशियां नही
    पर दोस्तों के साथ मस्ती की बात ही कुछ और थी ।

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