अपने आप को सर्वसुलभ बना देना ही समस्यायों की जड़ है, सरल होना ही सजा है... ये दुनिया अच्छी नहीं है क्यूँकि लोग अच्छे नहीं है या शायद ये भी हो सकता है कि हम ही अच्छे नहीं हैं इसलिए दुनिया भी बुरी लग रही है. ये दूसरी सम्भावना ही सत्य हो शायद.
कभी कभी ऐसी खाई सामने नज़र आती है कि आगे बढ़ पाना नामुमकिन सा लगता है... ऐसा प्रतीत होता है मानों जीवन को यहीं समाप्त हो जाना चाहिए, जीने का कोई औचित्य नज़र ही नहीं आता. मन सारे दरवाज़े खटखटा चुका होता है जहां कहीं से भी सहारे की उम्मीद लगायी जा सकती थी और हाथ लगी निराशा से हतोत्साहित हो असीम अन्धकार में डूब जाता है... अपने आप पर से विश्वास उठ सा जाता है कि तभी एक आख़िरी दरवाज़ा खुलता है... और वहाँ दस्तक देते ही सारी समस्या कहीं विलीन हो जाती है.
सच है, ये अजीब है कि उम्मीद का आख़िरी दरवाज़ा हम सबसे अंत के लिए बचा कर रखते हैं... जान बूझ कर ऐसा नहीं होता, शायद यह अवचेतन में चलने वाली कोई प्रक्रिया है जो सारे कष्ट उठा लेने के बाद ही उस दरवाज़े तक पहुँचने की अनुमति देती है! काश ऐसा होता कि पहली दस्तक ही उस दरवाज़े पर दी होती चेतना ने तो ये मृत्यु तुल्य कष्ट तो भोगने से बच जाती न.... हे ईश्वर! अब जो कभी ऐसी निराशा से सामना हो तो इतनी दया दिखाना कि यहाँ वहाँ भटकने के बजाये सीधे तेरी शरण में आयें... और निराशा के क्षणों में ही क्यूँ सदा सर्वदा के लिए तुम्हारे ही शरणागत हों फिर ये विपदा आये ही न.
विचारोत्तेजक!
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात ... सीधे शब्दों में.
जवाब देंहटाएंI'd like to share these lines from Emily Dickinson's Hope-
"...And sweetest in the Gale - is heard -
And sour must be the storm -
That could abash the little bird
That kept so many warm ."