रविवार, 21 जुलाई 2013

सभी को एक रोज़ स्मृति मात्र बनकर ही रह जाना है!

जलते जलते बुझ जाती है बाती... उड़ जाते हैं प्राण पखेरु… पर स्मृतियों की लौ बन कर टिमटिमाते रहते हैं... सदा के लिए चले जाने वाले, यहीं कहीं...
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बादलों के पीछे छुपा सूरज सुनहरे रंग घोल रहा है… संसार रंगने की तैयारियां चल रहीं हैं उसकी... कूचियाँ मिल नहीं रहीं होंगी शायद इसलिए प्रकट नहीं हो रहा है पूर्णरूपेण... पर दिख जा रहा है छिपा हुआ बादलों के पीछे... 
लगता है, कूचियाँ मिल गयीं उसे या फिर रंगों की प्याली ही उड़ेल दी उसने स्वयं को आच्छादित किये बादल पर? कौन जाने! बाल अरुण ये सारी लीलाएं कर के निकल ही आएगा बादलों के समुद्र से, धारण कर प्रचंड स्वरुप धरती के कण कण में समा जायेगा…
प्रात पहर के ये कुछ एक क्षण बीतते ही भला कौन मिला पायेगा उससे आँखें...!
देख रहे हैं, इन कुछ एक पंक्तियों के यहाँ उतरने में जो वक़्त लगा उतने में निकल आया है वो बादलों से... अपने सारे ताम झाम के साथ, रंग कूचियाँ सब साथ लिए, अब तक तो उसने बहुत कुछ रंग भी दिया है… यहाँ तक की एक टुकड़ा किरण का मेरे कमरे में भी प्रवेश कर कुछ कलाकारियाँ कर रहा है… 
चाहे कितना भी जतन कर ले वह, उदासियों में रंग भरना इतना सरल भी नहीं! मृत्यु की नीरवता... किसी का चले जाना... पीछे छूट गए लोगों का रोना बिलखना... इस सबसे परीचित है किरण भी… आखिर रोज़ जीती है वह अवसान के दर्द को... रोज़ डूबता जो है सूरज! ये और बात है कि यहाँ डूबा तो कहीं और दिन का आगाज़ हो रहा होता है... यहाँ अनुपस्थित होता है जब, तब वह पूर्ण वैभव के साथ कहीं और उदित हो रहा होता है… वस्तुतः वह कभी मिटता नहीं है… बस अदृश्य हो जाता है अगली सुबह तक के लिये. हम इंसान भी शायद शरीर त्यागने के बाद अदृश्य हो जाते हैं बस, मिटते नहीं... इधर शरीर चिरनिद्रा में लीन हुआ और उधर कहीं आत्मा यादों का रूप धर हृदय की दुनिया में जाग उठती है… चले जाना मात्र अदृश्य हो जाना ही है… सूरज की तरह एक जगह डूब जाने का अभिनय कर कहीं और उगना! 
भगवान कहते हैं-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना? 
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कल सुबह का सूरज जब वहाँ दूर उगा होगा, तब देखा होगा उसने वह सब... अचानक फूफा जी का आँखें मूंदना... उनका चुपके से आई मौत का वरण करना... उसके बाद का हृदयविदारक दृश्य, सब वैसे ही चिन्हित कर गया जब कुछ घंटों बाद उसका यहाँ सुदूर स्टॉकहोम आना हुआ... 
आज जब सूरज पुनः वहाँ उगा होगा तो पोंछे होंगे न उसने बुआ के आंसू, उनके अन्दर एक शक्ति रोप आया होगा न जिससे वो इस असह्य दुःख की घड़ी में खुद को संभाल सकें... गीता के श्लोक उच्चरित कर आया होगा न उसी तरह जिस तरह फूफा जी स्वर में गाते थे...
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कमरे में कलाकारी कर रही किरण अब जा चुकी है… मेरा मन भी कहीं दूर है... 
जिस तरह सरल हृदयी फूफा जी वो मीठा भजन गाते थे उसी तरह लहरा  रहा है वह स्वर कहीं हवाओं में... जिसे केवल हम सुन पा रहे हैं, इस जहान से वे चले गए पर कहीं तो हैं... वहीँ से आवाज़ आ रही हो...
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सबसे ऊंची प्रेम सगाई
दुर्योधन के मेवा त्याग्यो, साग विदुर घर खाई।
जूठे फल शबरी के खाये, बहु विधि स्वाद बताई।
राजसूय यज्ञ युधिष्ठिर कीन्हा, तामे जूठ उठाई।
प्रेम के बस पारथ रथ हांक्यो, भूल गये ठकुराई।
ऐसी प्रीत बढ़ी वृन्दावन, गोपियन नाच नचाई।
प्रेम के बस नृप सेवा कीन्हीं, आप बने हरि नाई।
सूर क्रूर एहि लायक नाहीं, केहि लगो करहुं बड़ाई।
सबसे ऊंची.......
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बहते आंसू हैं और है पसरा हुआ मौन... इसी के साथ मेरी कल्पना में सच्चिदानंद प्रभु के समीप बैठे आप भजन कीर्तन में मग्न दिख रहे हो फूफा जी, बस बुआ के क्रंदन से द्रवित हो गला रूंधा हुआ है आपका...
ॐ!

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