शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

हम राहों को नहीं चुनते, राहें हमें चुन लेती हैं...!


कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम राहों को नहीं चुनते, राहें हमें चुन लेती हैं...! हम सपने कुछ और देखते हैं, होता कुछ और है... सारा जीवन ही इस आँख मिचौनी का खेल है. बचपन में यह खेल खेल कर तो हमने भुला दिया पर ज़िन्दगी ये खेल हमेशा हमारे साथ खेलती रहती है. हम चाहते कुछ है, होता कुछ है; कई बातें तर्क की सीमा से परे होती हैं... कुछ निर्णय नियति भी लेती है हमारे लिए. अब हमेशा कविताओं से भागने के बाद आज एक कविता ही है जो मेरे पास बची है... भुलाने, बिसराने, खो दिए जाने के बावजूद... एक वह ही है जो बचपन से अब तक साथ है. विज्ञान की पढ़ाई करते रहे और कविता साथ चलती रही... यहाँ आये तो समय के सदुपयोग हेतु स्वीडिश भाषा की पढ़ाई शुरू कर दी... फिर भी निराश ही रहे हमेशा, अब संतोष है... इस भाषा के कवियों को पढ़ने का अवसर हमें कहाँ मिलता अगर सोचे अनुसार आते ही यहाँ Bio-Informatics में शोध हेतु प्रवेश मिल गया होता..., भाषा सीखी मजबूरी में लेकिन आज बढ़िया लग रहा है, कोई शिकायत नहीं है तुमसे स्टॉक होम:) कविता है न मेरे साथ, हर निराशा को आशा में बदलने के लिए... अब नज़र का ही तो फर्क होता है... है न?
अभी मेरे हाथों में एक किताब है... De Bästa Svenska Dikterna Från Stiernhelm till Aspenström. अब बहुत सारे 'अगर मगर', 'ऐसा होता तो कितना अच्छा होता' जैसे भावों को अलग कर इसके पन्नों के बीच घूमते हैं... देखें तो कवितायेँ कौन से सितारे टाँकती है मेरे सूने अम्बर पर आज...!

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